Sunday, May 8, 2011

लव का द एण्ड : ताजगी तो है लेकिन सुगंध नहीं

फिल्म समीक्षा
कलाकार : श्रद्धा कपूर, ताहा शाह, शहनाज ट्रेजरीवाला, अर्चना पूरणसिंह
निर्माता : आशीष पाटिल
निर्देशक : बंपी
-राजेश कुमार भगताणी

इस सप्ताह आई निर्देशक बंपी की लव का द एण्ड एक ऎसी फिल्म है जिसमें ताजगी का अहसास तो होता है लेकिन उस ताजगी में सुगन्ध का अभाव साफ महसूस किया जा सकता है।> एमटीवी पर बतौर निर्माता निर्देशक काम कर चुके नौजवान निर्देशक बंपी ने अपनी फिल्म के लिए जो प्लाट चुना है वह भी एमटीवी के कार्यक्रमों जैसा ही है। जहां सब कुछ बहुत जल्दी में हो जाता है और> यही जल्दी कई जगह पर अखरने लग जाती है। बम्पी ने अपनी फिल्म का प्लॉट आज के जनरेशन के हिसाब से रखा है। ट्रीटमेंट भी उन्होंने इसका फेसबुक जनरेशन के हिसाब से किया है। लेकिन इन सबके के बावजूद यह फिल्म अपनी कमजोर कथा और पटकथा के कारण दर्शकों को उबाउ लगने लग जाती है। बॉलीवुड में आदित्य चोप़डा को मार्केटिंग का उस्ताद माना जाता है। कहा जाता है कि जिस गति से युवाओं की सोच बदल रही है, उसी गति से आदित्य की नजर बदलते सामाजिक परिवेश को पक़ड लेती है। इसी के मद्देनजर उन्होंने अपने स्थापित बैनर यशराज फिल्म्स के अन्तर्गत एक नया बैनर वाई बैनर बनाया है जिसमें वे युवाओं को केन्द्र में रखकर फिल्मों का निर्माण करेंगे। इस बैनर तले युवाओं की फिल्म, युवाओं द्वारा युवाओं के लिए की विचारधारा का समामेल होगा अर्थात् यह बैनर केवल युवाओं के हाथ में होगा। एक अनुमान के> मुताबिक भारतीय सिने दर्शकों में 16 से 30 वर्ष के दर्शकों का अनुपात अन्य देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए वाई बैनर के तले आई पहली फिल्म लव का द एण्ड देखकर यह अनुमान सहजता से लगा कि यह सिर्फ और सिर्फ युवाओं के लिए है।

भारतीय सिनेमा में कॉलेज स्टूडेंट्स की जो छवि परदे पर पेश की जाती है ऎसा एक भी कॉलेज हमें वास्तविकता में कहीं नहीं दिखता है। वर्तमान में जरूर अब कुछ कॉलेज परदे पर दिखाए जाने वाले कॉलेज की छवि को अपने यहां पर प्रदर्शित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस फिल्म के नौजवान निर्देशक बम्पी ने कथानक का तानाबाना कॉलेज की मौज मस्ती का रखा लेकिन जल्द ही वे इस कथानक से उतर कर नायिका द्वारा नायक को सबक सिखाने की लाइन पर आ जाते हैं। इस में वे ऎसे उलझे कि उन्हें कहानी को खत्म करने का कोई रास्ता ही दिखाई नहीं दिया। इसलिए जब फिल्म खत्म होती है तो एक सवाल मन में उभरता है क्या यही है आजकल की पढ़ाई का माहौल। यह सही है कि कॉलेज में मौज मस्ती होती है लेकिन आजकल के कठिन प्रतियोगी नजर में शायद ही युवा इस प्रकार की हरकतें कॉलेज में करते होंगे। फिल्म की कहानी रिया (श्रद्धा कपूर) के इर्द गिर्द घूमती है। रिया कॉलेज में पढ़ने वाली एक सामान्य ल़डकी है। वह कॉलेज के एक ल़डके लव नन्दा (ताहा शाह) को प्यार करती है। लव नन्दा के ऊपर कॉलेज की कुछ अन्य ल़डकियां भी मरती हैं। अपने करो़डपति बाप के पैसे पर वह आए दिन पार्टियों का आयोजन करता है और ल़डकियों को अपनी ओर आकर्षित करने में उस पैसे का दिल खोलकर इस्तेमाल करता है। उसकी नजर में ल़डकी सिर्फ सैक्स का मजा लेने का एक माध्यम है। बार-बार के इस आग्रह पर रिया लव के साथ हम बिस्तर होने को तैयार हो जाती है लेकिन उससे पहले ही उसे लव की असलियत का पता चल जाता है।

इस बात को जानने के बाद वह अपनी सहेलियों के साथ मिलकर लव को उसकी करतूतों की सजा देती है। हॉलीवुड की फिल्म जॉन टूकर मस्ट डाई पर आधारित लव का द एण्ड कथानक के लिहाज से बेहद उबाऊपन लिए हुए हैं। निर्देशक बंपी ने कथानक तो वहां से चुरा लिया लेकिन वह उसके साथ उस तरह का ट्रीटमेंट नहीं कर पाए हैं। उन्होंने कथानक में जो बदलाव भारतीयता के नाते किए हैं वे पूरी तरह से निराश करते हैं। निर्देशक बम्पी ने पूरी फिल्म को श्रद्धा कपूर के कंधों पर छो़डा है। बॉलीवुड के खलनायक रहे शक्ति कपूर की बेटी श्रद्धा कपूर ने यहां अपनी पहली फिल्म तीन पत्ती से ज्यादा प्रभावित किया है। चूंकि निर्देशक ने पूरे समय कैमरा उन्हीं पर फोकस किया है जिसका उन्होंने लाभ उठाने का प्रयास किया है। लेकिन वे इस अवसर को पूरी तरह से भुनाने में सफल नहीं हो पाई हैं। ताहा शाह द्वारा निभाए गए लव नन्दा के किरदार पर लेखक व निर्देशक बम्पी ने ज्यादा मेहनत नहीं की है। वे चाहते तो इस किरदार पर मेहनत करके उसे और मजबूती के साथ पेश कर सकते थे। इसके बावजूद वे प्रभावित करते हैं। इन दोनों कलाकारों पर बाजी मारी है श्रद्धा कपूर की सहेली बनी मोटी सहेली पश्ती एस. ने। सोनी चैनल पर हर वक्त पूरा मुंह खोल कर जोर-जोर हंसने वाली अर्चना पूरण सिंह ने यहां भी यही किया है।

उन्होंने सिवाय चिल्लाने और आंखें फ़ाडकर देखने को ही अभिनय मान लिया है। इस बैनर द्वारा यह दावा किया जा रहा है कि यह फिल्म 16 से 25 वर्ष के युवाओं को बेहद पसन्द आएगी लेकिन फिल्म देखने के बाद हमें उनका यह दावा खोखला लगा। हां कुछ प्रतिशत जरूर ऎसे युवा फिल्म देखते हुए मिले जिन्हें इस फिल्म ने बहुत प्रभावित किया है। लेकिन यह प्रतिशत इतना कम है जिसके सहारे सफलता पाना बेहद मुश्किल है। फिल्म का तकनीकी पक्ष सामान्य है। अर्थात् फिल्म की फोटोग्राफी, गीत-संगीत व सम्पादन औसत दर्जे का है।

फिल्म का संगीत राम सम्पत का जिन्होंने इससे पहले खाकी का संगीत दिया था। एक अरसे बाद उन्होंने इस फिल्म के जरिए वापसी की है। उनके द्वारा संगीत बद्ध तीन गीत टू नाइट, फन फंडा और मटन सांग परदे पर देखते वक्त तो आकर्षक लगते हैं लेकिन गीत के बोल और धुनें ऎसी नहीं हैं जो लम्बे समय तक याद रखी जा सकें। आदित्य चोप़डा द्वारा स्थापित यह बैनर सिर्फ उन लोगों को सन्तुष्ट कर सकता है जो पैसे के बल पर फिल्म बना सकते हैं लेकिन निर्माण सामग्री नहीं जुटा सकते। ऎसे लोगों के लिए यह बैनर अच्छा प्लेटफार्म साबित होगा। हो सकता है अपवाद के तौर पर कभी इस बैनर से कोई अच्छी फिल्म निकल आए। फिलहाल तो उनका यह पहला प्रयास स्तरहीन है।

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