Friday, May 6, 2011

हांटेड : कहानी में पिछ़डे, तकनीक से डराने में कामयाब

फिल्म समीक्षा
कलाकार : महाअक्षय, टिया बाजपाई, अंचित कौर, आरिफ जकारिया, संजय शर्मा
निर्देशक : विक्रम भट्ट

राज की अप्रत्याशित सफलता ने विक्रम भट्ट को जो स्थान दिलाया था वह उसे निरन्तर जारी नहीं रख पाए। लेकिन 2009 में आई उनकी 1920 की सफलता ने यह साबित किया कि वर्तमान में हॉरर फिल्मों को उनसे अच्छा और कोई निर्देशक नहीं बना सकता। लेकिन इस शुक्रवार प्रदर्शित हुई हांटेड को देखने के बाद यह साफ हो गया कि इस प्रकार की फिल्मों में तकनीक के साथ-साथ सशक्त कथा पटकथा का होना भी बेहद जरूरी है।
यह सही है कि हांटेड भारत की पहली ऎसी हॉरर फिल्म है जो 3डी में बनाई गई। हालांकि 3डी में कुछ ही प्रिंट जारी किए गए हैं। डरावनी फिल्मों की परम्परा के अनुसार हांटेड की कहानी भी एक बंद हवेली से शुरू होती है। जिसके बारे में कहा जाता है कि इस पर आत्माओं का साया है। फिल्म के नायक के साथ इस भुतहवा बंगले की कहानी आगे बढ़ती है और धीरे-धीरे राज खुलते जाते हैं। हॉरर फिल्म की सबसे ब़डी जरूरत भयानक दृश्य भी इस बीच चलते रहते हैं। डरावनी फिल्मों के लिए जरूरी है कि वह अन्त तक दर्शकों को बांध कर रख सके लेकिन हांटेड इस स्तर की फिल्म नहीं है। यहां मध्यान्तर से पहले जरूर कुछ ऎसे दृश्य हैं जिनसे क्षण भर को सिरहन पैदा होती है लेकिन मध्यान्तर के बाद यह एक सामान्य फिल्म रह जाती है। 3डी प्रिंट से बच्चों को जरूर मजा आएगा।


कहानी के स्तर पर विक्रम भट्ट जहां मात खा गए हैं वहीं तकनीक के स्तर पर उन्होंने जरूर कुछ कामयाबी पाई है। बॉलीवुड के बंगाल टाइगर मिथुन चक्रवर्ती ने अपने बेटे मिमोह को चार साल पहले जिम्मी के जरिए परदे पर पेश किया था। जिम्मी कब आई और गई पता नहीं चला लेकिन विक्रम भट्ट की हांटेड से उनके पुत्र मिमोह ने नाम बदल कर महाअक्षय के रूप में फिर से बॉलीवुड में कदम रखा है। नाम बदलने से ही बॉलीवुड में किस्मत चमकती तो हर व्यक्ति आज बॉलीवुड में होता।

महाअक्षय की संवाद अदायगी बेहद खराब है इसके साथ ही उनके चेहरे पर किसी प्रकार का भाव नहीं आता है। जिस तरह की फिल्म है उसके अनुसार उनके चेहरे पर खौफ का साया दिखाई देना चाहिए था लेकिन ऎसा कुछ नहीं है। नृत्य में जरूर वे प्रतिभाशाली लगे। उनकी इस खासियत की वजह से विक्रम ने एक आइटम सांग उन्हीं पर फिल्माया है, जो देखकर लगता है कि यह जबरदस्ती डाला गया है। छोटे पर्दे से आई टि्वंकल बाजपेयी ने उम्मीद जगाई है। डर को दिखाने में फिल्म के बैक ग्राउण्ड म्यूजिक का बहुत ब़डा हाथ होता है जिसका यहां अभाव नजर आता है। फिल्म का छायांकन स्तरीय है लेकिन सम्पादन ढीला है। मध्यान्तर के बाद फिल्म में कसावट का अभाव साफ नजर आता है। परीक्षाओं के तनाव से मुक्त हो चुके युवा वर्ग को तकनीक के सहारे यह फिल्म जरूर प्रभावित कर सकती है लेकिन कमजोर कथानक के कारण जल्द ही बोरियत हो जाती है।

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