एस.डी. बर्मन ने हिन्दी फिल्मों में बहुत से दिल को छूने वाले कर्णप्रिय यादगार गीत दिये हैं। हिंदी और बांग्ला फिल्मों में सक्रिय सचिन देव बर्मन अपने गानों में लोकधुनों, शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का आकर्षक मिश्रण करने वाले संगीतकार होने के साथ ही बेहतरीन गायक भी थे। एस. डी. बर्मन अपने पिता त्रिपुरा के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के दूसरे पुत्र थे। एस.डी. बर्मन नौ भाई-बहन थे। सचिन देव बर्मन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की शिक्षा प्राप्त की। 1933 से 1975 तक बर्मन दा बंगाली व हिन्दी फिल्मों में सक्रिय रहे। 1938 में एस.डी. बर्मन ने गायिका मीरा से विवाह किया व एक वर्ष बाद उनके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ जिसका उन्होंने राहुल देव बर्मन (आर.डी. बर्मन) रखा।
हिंदी सिनेमा में 1950 और 60 के दशक में विशेष रूप से सक्रिय सचिन देव बर्मन के गानों में विरह, आशावाद और दर्शन के अलावा रूमानियत की झलक भी खूब दिखती है। सचिन देव वर्मन हिन्दी और बांग्ला फिल्मों के विख्यात संगीतकार और गायक थे। उन्होंने अस्सी से भी ज्यादा फिल्मों में संगीत दिया था। अपनी धुनों से हर वर्ग के संगीत प्रेमियों का मन मोह लेने वाले सचिन देव बर्मन फिल्मों में आने के पहले रेडियो पर प्रसारित पूर्वोत्तर लोक संगीत के कार्यRमों के जरिए अपनी पहचान बना चुके थे। युवावस्था में वह पूर्वोत्तर के राज्यों और पश्चिम बंगाल में खूब घूमे जिससे उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों के लोकसंगीत की अच्छी जानकारी हो गई और इसका बहुत अच्छा उपयोग उन्होंने अपनी धुनों में किया। उन्होंने पश्चिमी संगीत को भारतीय रंगढंग में ढालकर कर्णप्रिय संगीत दिया।
त्रिपुरा के शाही परिवार में एक अक्टूबर 1906 को पैदा सचिन देव की रूचि शुरू से ही संगीत में थी और उन्होंने इसकी विधिवत शिक्षा भी ली। शास्त्रीय और रवींद्र संगीत के विशेषज्ञ सचिन देव एक बेहतरीन गायक भी थे। उनके निधन के तीन दशक से अधिक हो चुके हैं लेकिन उनके संगीतबद्ध गीतों के साथ ही उनके गाए गीतों को पसंद करने वालों की कमी नहीं है। सचिन देव ने "गाइड" में "अल्ला मेघ दे, पानी दे..", "वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां..", फिल्म "प्रेम पुजारी" में "प्रेम के पुजारी हम हैं..", फिल्म "सुजाता" में "सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा" जैसे गीतों को अपनी आवाज देकर उन्हें अमर बना दिया।
ऎसे प्रतिभाशाली संगीतकार के लिए भी हिंदी फिल्मों में कदम जमाना कठिन साबित हुआ और वह एक समय वापस कोलकाता लौटने का मन बना चुके थे। लेकिन दिग्गज अभिनेता अशोक कुमार की बात मानते हुए वह रूक गए जो हिंदी सिनेमा के संगीत के लिहाज से वरदान साबित हुआ। सचिन देव बर्मन ने देव आनंद के नवकेतन बैनर के अलावा विमल राय, गुरू दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी की कई फिल्मों में बेहतरीन संगीत दिया। 1969 की फिल्म "आराधना" में भी उनका ही संगीत था। इस फिल्म से एक ओर सुपरस्टार राजेश खन्ना का उदय हुआ वहीं गायक किशोर कुमार के करियर को भी नई उंचाई मिली।
सचिन देव उन संगीतकारों में थे जिन्होंने बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाए रखा। 1970 के दशक में उन्होंने "शर्मीली", "तेरे मेरे सपने", "फागुन", "अभिमान", "मिली", "चुपके चुपके" "ज्वैल थीफ", "गाइड", "प्यासा", "बंदनी", "सुजाता", "टैक्सी ड्राइवर" जैसी अनेक इतिहास बनाने वाली फिल्में शामिल हैं। लेकिन बाद के दिनों में स्वास्थ्य साथ छोडने लगा और 31 अक्टूबर 1975 को इस प्रतिभाशाली संगीतकार का निधन हो गया। संगीत की दुनिया में सचिन देव बर्मन ने सितारवादन के साथ कदम रखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय से पढाई करने के बाद उन्होंने 1932 में कलकत्ता रेडियो स्टेशन पर गायक के तौर पर अपने पेशेवर जीवन की शुरूआत की। इसके बाद उन्होंने बाँग्ला फिल्मों तथा फिर हिंदी फिल्मों की ओर रूख किया। बर्मनदा के बारे में फिल्म इंडस्ट्री में एक बात प्रचलित थी कि वो तंग हाथ वाले थे यानी ज्यादा खर्च नहीं करते थे। उन्हें पान खाने का बेहद शौक था और वो अपने पान भारतीय विद्या भवन, चौपाटी से मंगाते थे। एस.डी. बर्मन फुटबॉल के शौकीन थे। एक बार मोहन बागान की टीम हार गई तो उन्होंने गुरूदत्त से कहा कि आज वो खुशी का गीत नहीं बना सकते हैं। यदि कोई दुख का गीत बनवाना हो तो वो उसके लिए तैयार हैं । दरअसल वो जो भी काम करते थे, पूरी तल्लीनता के साथ करते थे। एस.डी. बर्मन न सिर्फ बेहतरीन संगीतकार थे बल्कि लोक धुनों को सजाने की कला में भी माहिर थे। उनके गीतों को 40 से 50 साल हो गए हैं, लेकिन आज भी वे फीके नहीं पडे हैं और आज भी उन गानों को गुनगुनाने का दिल करता है। एस.डी. बर्मन कोलकाता के संगीत प्रेमियों में "सचिन कारता", मुम्बई के संगीतकारों के लिये "बर्मन दा", बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के रेडियो श्रोताओं में "शोचिन देब बोर्मोन", सिने जगत में "एस.डी. बर्मन" और "जींस" फिल्मी फैन वालों में "एस.डी" के नाम से प्रसिद्ध थे। एस. डी. बर्मन के गीतों ने हर किसी के दिल में अमिट छाप छोडी है। एस. डी. बर्मन के गीतों में विविधता थी। उनके संगीत में लोक गीत की धुन झलकती थी, वहीं शास्त्रीय संगीत का स्पर्श भी था। उनका संगीत जीवंत अपरंपरागत लगता था। संगीत में एस. डी. बर्मन की रूचि बचपन से ही थी और संगीत की एस. डी. बर्मन ने विधिवत शिक्षा भी ली थी। हालांकि एस. डी. बर्मन का मानना था कि फिल्म संगीत शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाने का माध्यम नहीं है। सचिन देव बर्मन चुने गए गीतों में ही बेहतरीन धुन देने में विश्वास रखते थे। वह धुनों के दोहराए जाने को भी पसंद नहीं करते थे। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा एस. डी. बर्मन ने अपने पिता व सितार-वादक नबद्वीप चंद्र देव बर्मन से ली। उसके बाद एस. डी. बर्मन उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय के यहाँ शिक्षित हुए और इसी शिक्षा से उनमें शास्त्रीय संगीत की जडें पक्की हुई। यह शिक्षा उनके संगीत में बाद में दिखाई भी दी। एस. डी. बर्मन अपने पिता की मृत्यु के पश्चात घर से निकल गये और असम व त्रिपुरा के जंगलों में घूमें। जहाँ पर उनको बंगाल व आसपास के लोक संगीत के विषय में अपार जानकारी हुई। एस. डी. बर्मन ने उस्ताद आफ्ताबुद्दीन खान के शिष्य बनकर मुरली वादन की शिक्षा ली और वह मुरली वादक बने। हिन्दी और बांग्ला फिल्मों में सचिन देव बर्मन ऎसे संगीतकार थे जिनके गीतों में लोकधुनों, शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का स्पर्श था, वहीं एस. डी. बर्मन पाश्चात्य संगीत का भी बेहतरीन मिश्रण करते थे। एस. डी. बर्मन सरल और सहज शब्दों से अपनी धुनों को कुछ इस तरह सजाते थे कि उनका गीत हर दिल में गहरे उतर जाता था। मृदुभाषी बर्मन दा ने अपनी इसी प्रवृति को अपने संगीत, गीत और गायिकी में भी ढाला था और यह अंदाज आज भी दर्शकों के दिल में उनके प्रति प्यार को जिंदा रखे हुए है। एस. डी. बर्मन ने अपने जीवन के शुरूआती दौर में रेडियो द्वारा प्रसारित पूर्वोत्तर लोक संगीत के कार्यRमों में संगीतकार और गायक दोनों के रूप में काम किया। एस. डी. बर्मन 10 वर्ष तक लोक संगीत के गायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। सन 1944 में फिलमिस्तान के शशधर मुखर्जी के आग्रह पर बर्मन दा अपनी इच्छा के विरूद्ध दो फिल्म, "शिकारी" व "आठ दिन" करने के लिये मुम्बई चले गये। लेकिन मुम्बई में काम करना आसान नहीं था। "शिकारी" और "आठ दिन" व बाद में "दो भाई", "विद्या" और "शबनम" की सफलता के बाद भी दादा को पहचान बनाने में वक्त लगा। बर्मन ने इससे हताश होकर वापस कोलकाता जाने का निpय किया लेकिन अशोक कुमार ने उन्हें जाने से रोक लिया और उन्होंने कहा-"मशाल" का संगीत दो और फिर तुम आजाद हो। इसके बाद दादा ने फिर मोर्चा संभाला। "मशाल" का संगीत सुपरहिट हुआ। उसी वक्त देव आनंद, जिनकी सिने जगत में अच्छी पहचान व रूत्बा था, उन्होंने "नवकेतन बैनर" की शुरूआत की और एस.डी.बर्मन को "बाजी" का संगीत देने को कहा। 1951 की "बाजी" हिट फिल्म थी और फिर "जाल" (1952), "बहार" और "लडकी" के संगीत ने बर्मन दा की सफलता की नींव रखी। बर्मन दा ने उसके बाद तो 1974 तक लगातार संगीत दिया। दर्जनों हिन्दी फिल्मों में कर्णप्रिय यादगार धुन देने वाले सचिन देव बर्मन के गीतों में जहाँ रूमानियत है वहीं विरह, आशावाद और दर्शन की भी झलक मिलती है। भारतीय सिनेमा जगत में सचिन देव बर्मन को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं संगीतकारों में शुमार किया जाता है। "प्यासा", "गाइड", "बंदिनी", "टैक्सी ड्राइवर", "बाजी" और "आराधना" जैसी फिल्मों के मधुर संगीत के जरिए एस.डी. बर्मन आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर छाए हुए हैं। अपने करीब तीन दशक के फिल्मी जीवन में सचिन देव बर्मन ने लगभग 80 फिल्मों के लिये संगीत दिया। बर्मन ने अपने फिल्मी सफर में सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ की। सिने सफर में बर्मन दा की जोडी प्रसिद्ध गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ खूब जमी और उनके लिखे गीत जबर्दस्त हिट हुए। इस जोडी ने सबसे पहले फिल्म "नौजवान" के गीत "ठंडी हवाएँ लहरा के आए..." के जरिए लोगो का मन मोहा। इसके बाद ही गुरूदत्त की पहली निर्देशित फिल्म "बाजी" के गीत "तदबीर से बिगडी हुई तकदीर बना दे..." में एसडी बर्मन और साहिर की जोडी ने संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया। इसके बाद साहिर लुधियानवी और एस. डी. बर्मन की जोडी ने "ये रात ए चांदनी फिर कहाँ..", "जाएँ तो जाएँ कहाँ..", "तेरी दुनिया में जीने से बेहतर हो कि मर जाएँ.." और "जीवन के सफर में राही..", "जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला.." जैसे गानों के जरिए दर्शकों को भावविभोर कर दिया। लेकिन एस. डी. बर्मन और साहिर लुधियानवी की यह सुपरहिट जोडी फिल्म "प्यासा" के बाद अलग हो गई। एस. डी. बर्मन की जोडी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ भी ख़ूब जमी। एस. डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोडी वाले गीत में "माना जनाब ने पुकारा नहीं..", "छोड दो आंचल जमाना क्या कहेगा..", "है अपना दिल तो आवारा.." आदि हैं। साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के अलावा एस. डी. बर्मन के पसंदीदा गीतकारों में आनंद बख्शी, नीरज, गुलजार प्रमुख रहे हैं जबकि उनके गीतों को स्वर देने में लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और आशा भोंसले प्रमुख गायक रहे हैं। एक समय था जब त्रिपुरा का शाही परिवार उनके राजसी ठाठ छोड संगीत चुनने के खिलाफ था। दादा इससे दुखी हुए और बाद में त्रिपुरा से नाता तोड लिया। आज त्रिपुरा का शाही परिवार एस. डी. बर्मन के लिये जाना जाता है।
बर्मन दा ने संगीत निर्देशन के अलावा कई फिल्मों के लिए गाने भी गाए। इन गीतों में "सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा", "मेरे साजन है उस पार", "अल्लाह मेघ दे छाया दे", जैसे गीत आज भी दर्शकों को भाव विभोर करते हैं। एस. डी. बर्मन ने फिल्म अभिनेता निर्माता और निर्देशक देवानंद की फिल्मों के लिए सदाबहार संगीत देकर उनकी फिल्मों को सफल बनाने में महžवपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रसिद्ध संगीतकार और गायक एस. डी. बर्मन जी को उनके जीवन में कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।
सन पुरस्कार
1934 गोल्ड मैडल अखिल बंगाल शास्त्रीय संगीत समारोह (कोलकाता)।
1954 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, टैक्सी ड्राइवर।
1958 संगीत नाटक अकादमी अवार्ड।
1958 एशिया फिल्म सोसायटी अवार्ड।
1959 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, "सुजाता" (नामांकन)।
1965 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, "गाइड" (नामांकन)।
1969 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, "आराधना" (नामांकन)।
1970 नेशनल फिल्म अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक, "आराधना" (सफल होगी तेरी अराधना)।
1970 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, "तलाश" (नामांकन)।
1973 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, "अभिमान"।
1974 नेशनल फिल्म अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन, "जिंदगी जिंदगी"।
1974 फिल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, "प्रेम नगर" (नामांकन)। बर्मन दादा ने अपने बेटे पंचम और नासिर हुसैन के साथ सबसे अधिक हिट गानों में संगीत दिया है। बर्मन दादा का स्वयं में अटूट विश्वास था और बर्मन दादा अपने गीत चुनने के लिये जाने जाते थे। वे हमेशा कहते-मैं केवल अच्छे गाने निर्देशित करता हूँ। बर्मन दा अधिक मात्रा में संगीत देने की बजाय खुद चुने हुए गीतों में संगीत देते थे और इसी बात के लिये वे जाने भी जाते थे। एक समय था जब संगीत गाने के बोल के आधार पर दिया जाता था। इस तरीके को दादा ने बदला। अब गीत के बोल संगीत की धुन पर लिखे जाने लगे। दादा तुरंत धुनें तैयार करने में माहिर थे और इन धुनों में लोक व शास्त्रीय दोनों प्रकार के संगीत का मिश्रण था। बर्मन दादा व्यवसायीकरण में हिचकते थे पर वे यह भी चाहते थे कि गाने की धुन ऎसी हो कि कोई भी इसे आसानी से गा सके। जहाँ जरूरत पडी उन्होंने सुंदर शास्त्रीय संगीत भी दिया। लेकिन वे कहते थे कि फिल्म संगीत वो माध्यम नहीं है जहाँ आप शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाये। लता मंगेशकर ने बर्मन दादा के साथ रिकार्ड करने के लिये मना किया उसके बाद उन्होंने आशा भोंसले व गीता दत्त के साथ एक के बाद एक कई हिट गाने दिये। बर्मन दादा ने आशा भोंसले, किशोर कुमार और हेमंत कुमार को भी बतौर गायक तैयार किया। उन्होंने रफी से सॉफ्ट गाने गवाये जब अन्य संगीतकार रफी से हाई पिच गीत गाने को कह रहे थे। बर्मन दा की हमेशा कोशिश रहती कि एक बार जो संगीत उन्होंने दिया उसको अगले किसी भी गाने में दोहराया न जाये। इसी वजह से उनके किसी भी गाने में ऎसा कभी नहीं लगा कि पहले भी किसी गाने में दिया गया हो। सन 1930 के दशक में उन्होंने कोलकाता में "सुर मंदिर" नाम से अपने संगीत विद्यालय की स्थापना की। वहाँ बर्मन दादा गायक के तौर पर प्रसिद्ध हुए और के.सी. डे
Thursday, November 3, 2011
एस.डी. बर्मन : गाता रहे मेरा दिल . . .
Labels:
sd burman
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