. . . और 58वें वर्ष में प्रवेश कर गई रेखा। जी हां आज 10 अक्टूबर, 2011 को अपनी जिन्दगी के 58वें वसन्त में बॉलीवुड की इस पूर्व अभिनेत्री ने कदम रखा है। हिन्दी सिनेमा में 42 साल पूरे कर चुकीं रेखा आज भी अपनी खूबसूरत और आकर्षक आंखों की बदौलत दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाती हैं। यही नहीं रेखा को फिल्म जगत की नामचीन हस्तियां और उनके प्रशंसक ऎसी “संपूर्ण अभिनेत्री” कहते हैं, जिसमें अभिनय कला के सभी गुण मौजूद हैं। दक्षिण के अभिनेता जेमिनी गणेशन की बेटी रेखा ने अपनी पहली ही फिल्म “सावन भादो” (1970) में सफलता हासिल कर ली थी। अपने 42 साल लम्बे करियर में रेखा ने बॉलीवुड को कई ऎसी फिल्में दी हैं जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ उनके दम पर सफलता का परचम फहराया था। किसी के समझ में न आने वाली इस अभिनेत्री को कभी बॉलीवुड की टेढी-मेडी रेखा के नाम से जाना जाता था। अपने समय के समस्त नायकों के साथ काम करने वाली इस अभिनेत्री ने फिल्मों में हर प्रकार के किरदार को अपने अभिनय से संवारा है। उन्होंने फिल्मों में नायिका, खलनायिका, सह नायिका सभी तरह की भूमिकाएं की हैं। मुजफ्फर अली की फिल्म “उमराव जान” (1981) के लिए रेखा को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। उन्होंने 180 से अधिक फिल्मों में काम किया है और उनकी हर फिल्म में उनके अभिनय के विविध रूप देखने को मिले। अंतिम बार रेखा हिन्दी सिनेमा में अभिनेता शाहरूख खान अभिनीत फिल्म ओम शांति ओम (2007) में नजर आई थीं। रेखा अपनी युवावस्था में काफी मोटी थीं लेकिन बाद में वह खूबसूरत और छरहरी काया वाली अभिनेत्री में बदल गई थीं। नई अभिनेत्रियां आज भी उनसे प्रेरणा लेती हैं। फिल्मकार मुजफ्फर अली ने कहा, वह स्वप्नदृष्टा हैं, वह अपनी ही दुनिया में रहती हैं। वह कई ऎसी चीजों की कल्पना कर लेती हैं जो एक अभिनेत्री के नाते उनके मानस को जंचती हैं। वह बहुत ईमानदार, सुशील और बेहद संवेदनशील हैं। वह संपूर्ण अभिनेत्री हैं। उनका अधिक वजन और हिंदी भाषा की जानकारी का अभाव के कारण दर्शकों ने उन्हें सावन भादो में नकार दिया। इसके बाद उन्होंने “कहानी किस्मत की”, “नमक हराम”, “रामपुर का लक्ष्मण” और “प्राण जाए पर वचन ना जाए” जैसी फिल्में कीं, लेकिन वर्ष 1976 की फिल्म “दो अनजाने” में उनके अभिनय को सराहा गया। प्रसिद्ध फिल्म इतिहासकार गौतम कौल का कहना है, रेखा स्वीडन की अभिनेत्री ग्रीटा गार्बो जैसी हैं। बॉलीवुड में इन दिनों चर्चा है कि रेखा अपनी आत्मकथा लिख रही हैं और वह “कृष” श्रेणी की अगली फिल्म में भी नजर आएंगी। बतौर अभिनेत्री रेखा की पहचान अमिताभ बच्चन की नायिका बनने के साथ शुरू हुई, जब उन्होंने पहली बार फिल्म आलाप में अमिताभ के साथ काम किया। ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने दर्शकों को उतना प्रभावित नहीं किया जितना दो अनजाने में उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को अपना दीवाना बनाया। रेखा सितारा पुत्री अवश्य हैं, परन्तु उनके बचपन में ही उनके माता-पिता के सम्बन्ध बिगड जाने से तेरह वर्ष की वय में ही अपनी मां के लिए वह कमाऊ पुत्री हो गई। टूटे हुए परिवार की संतान के मन का विकास अवरूद्ध रह सकता है। अपने बिंदास व्यवहार और मांसलता के कारण फिल्म जगत में कमसिन उम्र में ही लोकप्रियता पाने वाली रेखा अत्यन्त मूडी और सनकी रहीं, परन्तु दो अनजाने में अमिताभ के साथ मैत्री होते ही उसमें परिवर्तन आए। बर्नार्ड शॉ के नाटक की तरह अमिताभ उनके लिए मार्गदर्शक प्रोफेसर हिगिन्स की भूमिका में आए और रेखा कालान्तर में उमराव जान अदा बन गई। दो लोगों के बीच सम्बन्ध का रसायन विचित्र होता है। यह किस तरह काम करता है, बताया नहीं जा सकता और सबसे अधिक विचित्र यह है कि सिनेमा के परदे पर यह रसायन जाने कैसे उजागर होता है। अमिताभ बच्चन ने अपनी पत्नी जया बच्चन सहित अनेक नायिकाओं के साथ अभिनय किया, परन्तु जो जादू उनके और रेखा के साथ देखा गया, वह अन्य किसी नायिका के साथ प्रस्तुत नहीं हुआ। यश चोपडा की सिलसिला में अमिताभ के साथ जया और रेखा थीं, परन्तु यह प्रेम त्रिकोण फीका रहा। शायद प्रेम में प्रतिस्पर्धी की मौजूदगी के दबाव के कारण कोई भी स्वाभाविक नहीं रहा। बहरहाल, अमिताभ और रेखा अलग-अलग और साथ-साथ मनोरंजन जगत में अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे हैं। जीवन की पटकथा ने इन्हें आज दूरी पर रख दिया है, परन्तु जन्मदिनों की निकटता किसी के मिटाए मिट नहीं सकती और एक को याद करो तो दूसरा याद आ ही जाता है। स्मृति में अंतरंगता कायम है। प्रकाश मेहरा की मुकद्दर का सिकंदर में रेखा और अमिताभ की जोडी ने पहली बार शोहरत के आसमान को छुआ और फिर देखते ही देखते यह जोडी सिने-इतिहास में अपना नाम दर्ज करती चली गई। सुहाग, मि.नटवरलाल, गंगा की सौगंध, नमक हराम, खून पसीना सहित कई फिल्मों की सफलता के साथ इस जोडी ने बुलंदी का वह शिखर छुआ, जिसे आज भी लोकप्रियता का इतिहास माना जाता है। इस जोडी का शिखर रहा यश चोपडा की फिल्म सिलसिला, जिसमें अमिताभ के साथ रेखा और जया बच्चन का त्रिकोण था। फिल्म में जया ने अमिताभ की पत्नी और रेखा ने प्रेमिका का रोल किया था। यही वजह है कि इस फिल्म को बच्चन की निजी जिंदगी से जोडकर देखा गया और इस जोडी के आपसी रिश्तों को लेकर चर्चाओं का बाजार आज भी बुलंद रहता है। वर्ष 1981 में प्रदर्शित यश चोपडा की सिलसिला में यह जोडी आखिरी बार परदे पर नजर आई थी। इस जोडी के दीवाने तो आज भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि यह जोडी एक बार फिर सफलता के इतिहास को दोहराए। इसमें कोई शक नहीं है कि जिस दिन अमिताभ-रेखा एक फिल्म में साथ काम करने के लिए राजी हो गए, वह फिल्म दर्शकों के हुजूम को थिएटरों में ले आएगी। बच्चन से हटकर रेखा के कैरियर में उमराव जान एक नया मोड साबित हुई, जिसमें रेखा ने अदायगी का जादू बिखेरा। इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतना रेखा की अभिनय क्षमता का प्रमाण था। उमराव जान के बाद रेखा के कैरियर में मंदी जरूर आई, लेकिन निजी तौर पर फिल्म-जगत में उनका जादू अब भी बरकरार है। आज भी बडे से बडे निर्देशक उनके साथ काम करने को उत्सुक रहते हैं। कुछ वर्ष पहले आई विधु विनोद चोपडा की प्रदीप सरकार निर्देशित परिणीता के गाने की सफलता से साबित हो गया कि 4 दशक बाद भी रेखा का जादू बरकरार है। ऎसे में, जबकि रेखा की समकालीन अधिकतर अभिनेत्रियां या तो रिटायर हो चुकी हैं या फिर मां-दादी के रोल कर रही हैं, आज भी रेखा की क्षमता और रहस्य हमेशा दिलचस्पी का सबब बना हुआ है और शायद हमेशा बना रहे। अमिताभ के साथ सफलता और प्रेम के रिश्तों ने रेखा की जिंदगी को नई दिशा दी। खूबसूरती की मिसाल कही जाने वाली रेखा की निजी जिंदगी की उठापटक भी हमेशा चर्चित रही। अमिताभ के अलावा कई सितारों के साथ उनके अफेयर के किस्से, 1990 में दिल्ली के बिजनेसमैन मुकेश अग्रवाल के साथ उनके विवाह की असफलता रेखा के रहस्यों का एक हिस्सा हैं। लोगों को चौंकाने में विश्वास रखने वाली रेखा कब क्या करें और कहे, कोई नहीं जानता। रेखा अदभुत हैं और शब्दों से पार उनका एक ऎसा संसार है, जिसके रहस्य कोई नहीं जान सकता, सिवाय रेखा के। पहले शोख फिर सेक्स बम से अभिनय की बढत बनाने वाली रेखा की शोहरत एक संजीदा अभिनेत्री के सफर में बदल जाएगी यह भला किसे मालूम था। सावन भादो से शुरूआत करने वाली रेखा ने जब चार दशक पहले सेल्यूलाइड की दुनिया में सर्राटा भरा था तो लोग कहते थे कि उसे शऊर नहीं। न अभिनय का न जीने का। लेकिन वह तब की तारीख थी। अब की तारीख में रेखा की कैफियत बदल गई है। अभिनय का शऊर और अपने जादू का जलवा तो वह कई बरसों से जता ही रही थीं, जीने की ललक और उसे करीने से कलफ देने का शऊर भी उन्हें अब आ ही गया है। अब लगभग विधवा जीवन जी रही रेखा, हालांकि मुकेश अग्रवाल से उनके ही फार्म हाऊस में हुए प्रेम, फिर शादी और फिर मुकेश की आत्महत्या प्रसंग को एक क्षणिक सुनामी मान भूल जाया जाए तो भी रेखा ने जैसे ढेरों रद्दी फिल्मों में काम किया, कमोवेश उसी अनुपात में इधर-उधर मुंह भी खूब मारा। जिस की कोई मुकम्मल फेहरिस्त नहीं बनती। ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने गिनती की कुछ श्रेष्ठ फिल्में कीं, कुछेक फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया। कमोबेश इसी अनुपात में सर्वश्रेष्ठ प्रेम भी उन्होंने किया और डंके की चोट पर किया। किरन कुमार, विनोद मेहरा, राजबब्बर, जितेंद्र, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, धर्मेद्र, शैलेंद्र सिंह, अमिताभ बच्चन और संजय दत्त, फारूख अब्दुल्ला जैसे उन के प्रेम प्रसंग के तमाम बेहतरीन पडाव हैं। ठीक वैसे ही दो अनजाने, खूबसूरत, घर, उमराव जान, उत्सव, आस्था, खिलाडियों का खिलाडी, जुदाई, बसेरा और इजाजत उन की बुलंद अभिनय यात्रा के उतने ही महत्वपूर्ण बिंदु हैं। 1975 से 1985 तक का समय रेखा के लिए बडा महत्वपूर्ण है। इसी बीच वह अपने प्रेम प्रसंग के सब से महत्वपूर्ण पडाव अमिताभ बच्चन से जुडीं और लगभग उन की हमसफर बन गईं। इन्हीं दस सालों में उन्होंने खूबसूरत, उमराव जान, उत्सव जैसी फिल्मों में काम किया और अपनी चुलबुली छवि को चूर किया। चूर उन के सपने भी हुए। इन्हीं दिनों मुजफ्फर अली की उमराव जान आ कर उन्हें जान दे गई थी, क्योंकि तब तक व्यावसायिक सिनेमा में नंबर वन की पोजीशन उन से पंगा लेने लगी थी। लेकिन उमराव जान की सादगी ने उन की शान बढा दी थी। रेखा विरह की ही नायिका हैं। जहां-जहां और जब-जब विरह उन के हिस्से आया है, विरहिणी को जिस कोमलता से उन्होंने जीया है, वह उनके समय की नायिकाओं में उनके मानिंद कोई और नहीं जी सकता था। विरहिणी की अकुलाहट की सघनता को घनत्व देने वाली नायिकाएं तो हैं, पर उसे सहजता भरी सादगी देने वाली और उस सहजता में भी चुलबुलापन चुआने वाली अन्य कोई नायिका नहीं थी। यहां जिक्र करना चाहेंगे ऋषिकेश मुखर्जी की दो फिल्मों आलाप और खूबसूरत का। खूबसूरत जब आई तो लोग यकायक चकित हो चले कि क्या यह वही खिलंदड, थुलथुल देह दिखाती, इतराती फिरने वाली रेखा है। खूबसूरत तो समूची फिल्म ही खूबसूरत थी। पर रेखा, रेखा के तो कैरियर का बदलाव ही इसी फिल्म से हुआ जो बाद में कलयुग, उत्सव, उमराव जान और इजाजत तक जा पहुंचा। फिर आई मुजफ्फर अली की उमराव जान। उमराव जान में उन के हीरो थे फारूख शेख और राज बब्बर। पर जैसे खूबसूरत फिल्म रेखा के ही इर्द-गिर्द घूमती थी, उमराव जान में केंद्रीय भूमिका उन्हीं की थी। जिस लयबद्धता में उमराव जान को उन्होंने अपने आप में उतारा, जीया और जीवन दिया कोई दूसरी अभिनेत्री उसे वह रंग शायद ही दे पाती। उन की विरहिणी का यही शोला उत्सव में आ कर भडक जाता है। मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को गीत में तो जैसे वह कलेजा काढ लेती हैं। शशि कपूर की गिरीश कर्नाड निर्देशित उत्सव हालांकि अपने कुछ उत्तेजक दृश्यों के लिए ज्यादा जानी गई और रेखा के बोल्ड सीन के आगे उन का अभिनय लोगों की आंखों में कम ही समा पाया। दरअसल रेखा के अभिनय का बारीक रेशा हमें उत्सव में ही मिलता है। अभिनय की जो बेला रेखा ने उत्सव में महकाई है वह हिंदी फिल्मों में विरल ही है। इसके कुछ ही समय बाद आई राकेश रोशन की दूसरी निर्देशित फिल्म खून भरी मांग भी तहलका मचा गई थी। लोगों ने रेखा में बदले की आग ढूंढने की कोशिश की और उस में सफलता भी पा ली। पर अगर आंख भर जो आप खून भरी मांग की रेखा को देखें, रेखा की आंखों को देखें तो वहां विरहिणी की ही आंखें, हिरनी ही की आंखें आप को दिखेंगी। रेखा की आंखें दरअसल विरह में डूबी नहीं, बल्कि विरह में बऊराई, विरह में नहाई दीखती हैं। उनकी आंखों पर याद आती है निर्देशक राजकुमार कोहली की मल्टीस्टारर फिल्म नागिन। नागिन के दंश में डूबी उन की आंखों में मादकता का महुआ और विरह का विरवा एक साथ वेधता है। दर्शक घायल भी होते हैं और पागल भी। उस पर उन पर और सुनील दत्त पर फिल्माया गया गीत तेरे इश्क का मुझ पे हुआ ये असर है सोने पर सुहागा का काम कर जाता है। होने को इस फिल्म में रीना राय, योगिता बाली आदि अभिनेत्रियां भी थीं पर वह, वह कमाल नहीं दिखा पातीं जो रेखा कर गुजरती हैं। रेखा ने विनोद पांडे की एक घटिया फिल्म एक नया रिश्ता राजकिरण के साथ की, परन्तु विनोद पांडे उनकी विरहिणी आंखों को न तो बांच पाए, न व्यौरा दे पाए। जबकि रेखा ने अपनी शुरूआती फिल्म धर्मा जिस में नवीन निश्चल उनके हीरो हैं, अपनी आंखों का खूब इस्तेमाल किया है। इस फिल्म में एक कव्वाली है, इशारों को अगर समझो, राज को राज रहने दो, है तो प्राण और बिंदू के ऊपर, परन्तु यहां विषय रेखा ही हैं और तिस पर इसमें उन की आंखों का ब्यौरा बांचना व्याकुल कर जाता है। यहां तक कि कई फिसड्डी फिल्मों जैसे कि माटी मांगे खून जिसमें कि शत्रुƒन सिन्हा उन के हीरो हैं या फिर किला जिसमें दिलीप कुमार उनके हीरो हैं, जैसी बहुतेरी फिल्में हैं, जहां उन की आंखों, बौराई आंखों का अच्छा ट्रीटमेंट है। खास कर गुलाम अली द्वारा गाए गीत ये दिल, ये पागल दिल मेरा फिल्माया भले शत्रु पर गया है पर फोकस रेखा और उन की आंखों पर ही है। रेखा की आंखों में मस्ती भी है और भरपूर मादकता भी। तभी तो मुजफ्फर अली को उमराव जान में शहरयार से रेखा की आंखों की खातिर एक पूरी गजल ही कहलवानी पडी, इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं. . . बात भी सच है।
- राजेश कुमार भगताणी
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