23 सितम्बर को अचानक हुए ब्रेन हैमरेज के कारण मुम्बई के लीलावती अस्पताल में भर्ती हुए जगजीत सिंह 25 सितम्बर को कोमा में चले गए थे। जिन्दगी और मौत के बीच उन्होंने लगभग 15 दिन गुजारे। मौत से संघर्ष करते हुए उन्होंने सोमवार 10 अक्टूबर, 2011 को सुबह आठ बजे मुम्बई के लीलावती अस्पताल के उस कमरे में अन्तिम सांस ली, जो शायद उन्हीं के दिए हुए गुप्त दान से बना था। जगजीत सिंह एक बहुत लोकप्रिय गजल गायक हैं। उनका संगीत काफी मधुर है और उनकी आवाज संगीत के साथ खूबसूरती से विलय होती है। खालिस उर्दू जानने वालों की मिल्कियत समझी जाने वाली, नवाबों-रक्कासाओं की दुनिया में झनकती और शायरों की महफिलों में वाह-वाह की दाद पर इतराती गजलों को आम आदमी तक पहुंचाने का श्रेय अगर किसी को पहले पहल दिया जाना हो तो जगजीत सिंह का ही नाम ज़ुबां पर आता है। उनकी गजलों ने न सिर्फ उर्दू के कम जानकारों के बीच शेरो-शायरी की समझ में इजाफा किया बल्कि गालिब, मीर, मजाज, जोश और फिराक जैसे शायरों से भी उनका परिचय कराया।
आरंभिक दिन
जगजीत जी का जन्म 8 फरवरी 1941 को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी भारत सरकार के कर्मचारी थे। जगजीत जी का परिवार मूलत: पंजाब के रोपड जिले के दल्ला गांव का रहने वाला है। मां बच्चन कौर पंजाब के ही समरल्ला के उट्टालन गांव की रहने वाली थी। जगजीत का बचपन का नाम जगमोहन था, जो बाद में पारिवारिक ज्योतिष की सलाह पर बदल कर जगजीत कर दिया गया था। करोडों सुनने वालों के चलते सिंह साहब कुछ ही दशकों में जग को जीतने वाले जगजीत बन गए। शुरूआती शिक्षा श्रीगंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में पढने के लिए जालंधर आ गए। डीएवी कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया।
संगीत का सफर
बचपन में अपने पिता से संगीत विरासत में मिला। गंगानगर में ही पंडित छगन लाल शर्मा के सानिध्य में दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखने की शुरूआत की। आगे जाकर सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रूपद की बारीकियां सीखीं। पिता की ख्वाहिश थी कि उनका बेटा भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में जाए लेकिन जगजीत पर गायक बनने की धुन सवार थी। कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान संगीत में उनकी दिलचस्पी देखकर कुलपति प्रोफेसर सूरजभान ने जगजीत सिंह जी को काफी उत्साहित किया। उनके ही कहने पर वे 1965 में मुंबई आ गए। यहां से संघर्ष का दौर शुरू हुआ। वे पेइंग गेस्ट के तौर पर रहा करते थे और विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर या शादी-समारोह वगैरह में गाकर रोजी रोटी का जुगाड करते रहे। 1967 में जगजीत सिंह की मुलाकात चित्रा जी से हुई। दो साल बाद दोनों 1969 में परिणय सूत्र में बंध गए। जगजीत सिंह सालों तक अपनी पत्नी चित्रासिंह के साथ जोडी बनाकर गाते रहे। दोनों ने मिलकर कई बेमिसाल प्रस्तुतियां दीं। साल 1990 में एक हादसे में इस दम्पति ने अपने पुत्र विवेक को खो दिया। चित्रासिंह इस हादसे से कभी नहीं उबर पाई और उन्होंने गाना बन्द कर दिया। जगजीत सिंह उन कुछ चुनिंदा लोगों में से एक है, जिन्होंने 1857 में भारत में अंग्रेजों के खिलाफ हुए गदर की 150वीं वर्षगाँठ पर आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की गजल संसद में प्रस्तुत की थी।
गुजरा जमाना
जगजीत सिंह फिल्मी दुनिया में प्लेबैक सिंगिंग (पार्श्वगायन) का सपना लेकर आए थे। तब पेट पालने के लिए कॉलेज और ऊंचे लोगों की पार्टियों में अपनी पेशकश दिया करते थे। उन दिनों तलत महमूद, मोहम्मद रफी साहब जैसों के गीत लोगों की पसंद हुआ करते थे। रफी-किशोर-मन्नाडे जैसे महारथियों के दौर में पार्श्व गायन का मौका मिलना बहुत दूर था। जगजीत जी याद करते हैं, संघर्ष के दिनों में कॉलेज के लडकों को ख़ुश करने के लिए मुझे तरह-तरह के गाने गाने पडते थे, क्योंकि शास्त्रीय गानों पर लडके हूट कर देते थे. तब की मशहूर म्यूजिक कंपनी एच एम वी (हिज मास्टर्स वॉयस) को लाइट क्लासिकल ट्रेंड पर टिके संगीत की दरकार थी। जगजीत जी ने वही किया और पहला एलबम \”द अनफॉरगेटेबल्स (1976)\” हिट रहा। जगजीत जी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, उन दिनों किसी सिंगर को एल पी (लॉग प्ले डिस्क) मिलना बहुत फº की बात हुआ करती थी. बहुत कम लोग जानते हैं कि सरदार जगजीत सिंह धीमान इसी एलबम के रिलीज के पहले जगजीत सिंह बन चुके थे। बाल कटाकर असरदार जगजीत सिंह बनने की राह पकड चुके थे। जगजीत ने इस एलबम की कामयाबी के बाद मुंबई में पहला फ्लैट खरीदा था।
आम आदमी की गजल
जगजीत सिंह ने गजलों को जब फिल्मी गानों की तरह गाना शुरू किया तो आम आदमी ने गजल में दिलचस्पी दिखानी शुरू की लेकिन गजल के जानकारों की भौहें टेढी हो गई। खासकर गजल की दुनिया में जो मयार बेगम अख्तर, कुन्दनलाल सहगल, तलत महमूद, मेहंदी हसन जैसों का था उससे हटकर जगजीत सिंह की शैली शुद्धतावादियों को रास नहीं आई। दरअसल यह वह दौर था जब आम आदमी ने जगजीत सिंह, पंकज उधास सरीखे गायकों को सुनकर ही गजल में दिल लगाना शुरू किया था। दूसरी तरफ परंपरागत गायकी के शौकीनों को शास्त्रीयता से हटकर नए गायकों के ये प्रयोग चुभ रहे थे। आरोप लगाया गया कि जगजीत सिंह ने गजल की प्योरटी और मूड के साथ छेडखानी की। लेकिन जगजीत सिंह अपनी सफाई में हमेशा कहते रहे हैं कि उन्होंने प्रस्तुति में थोडे बदलाव जरूर किए हैं लेकिन लफ्जों से छेडछाड बहुत कम किया है। बेशतर मौकों पर गजल के कुछ भारी-भरकम शेरों को हटाकर इसे छह से सात मिनट तक समेट लिया और संगीत में डबल बास, गिटार, पिआनो का चलन शुरू किया। यह भी ध्यान देना चाहिए कि आधुनिक और पाpात्य वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में सारंगी, तबला जैसे परंपरागत साज पीछे नहीं छूटे। प्रयोगों का सिलसिला यहीं नहीं रूका बल्कि तबले के साथ ऑक्टोपेड, सारंगी की जगह वायलिन और हारमोनियम की जगह कीबोर्ड ने भी ली। कहकशां और फेस टू फेस संग्रहों में जगजीत जी ने अनोखा प्रयोग किया। दोनों एलबम की कुछ गजलों में कोरस का इस्तेमाल हुआ। जलाल आगा निर्देशित टीवी सीरियल कहकशा के इस एलबम में मजाज लखनवी की आवारा नÊम गमे दिल क्या करूं वहशते दिल क्या करूं और फेस टू फेस में दैरो-हरम में रहने वालों मयखारों में फूट न डालो\” बेहतरीन प्रस्तुति थीं। जगजीत ही पहले गजल गुलुकार थे जिन्होंने चित्रा जी के साथ लंदन में पहली बार डिजीटल रिकॉडिंüग करते हुए बियॉन्ड टाइम अलबम जारी किया। इतना ही नहीं, जगजीत जी ने क्लासिकी शायरी के अलावा साधारण शब्दों में ढली आम-आदमी की जिंदगी को भी सुर दिए। \”अब मैं राशन की दुकानों पर नजर आता हूं, मैं रोया परदेस में, मां सुनाओ मुझे वो कहानी जैसी रचनाओं ने गजल न सुनने वालों को भी अपनी ओर खींचा। शायर बशीर बद्र जगजीत सिंह जी के पसंदीदा शायरों में हैं। निदा फाजली के दोहों का एलबम इनसाइट कर चुके हैं। जावेद अख्तर के साथ सिलसिले जबर्दस्त कामयाब रहा। लता मंगेशकर जी के साथ सजदा, गुलजार के साथ मरासिम और कोई बात चले, कहकशां, साउंड अफेयर, डिफरेंट स्ट्रोक्स और मिर्जा गालिब अहम हैं। जगजीत जी ने राजेश रेड्डी, कैफ भोपाली, शाहिद कबीर जैसे शायरों के साथ भी काम किया है।
फिल्मी सफरनामा
1981 में रमन कुमार निर्देशित प्रेमगीत और 1982 में महेश भट्ट निर्देशित अर्थ को भला कौन भूल सकता है। अर्थ में जगजीत जी ने ही संगीत दिया था। फिल्म का हर गाना लोगों की ज़ुबान पर चढ गया था। इसके बाद फिल्मों में हिट संगीत देने के सारे प्रयास बुरी तरह नाकामयाब रहे। कुछ साल पहले डिंपल कापç़डया और विनोद खन्ना अभिनीत फिल्म लीला का संगीत औसत दर्जे का रहा। 1994 में ख़ुदाई, 1989 में बिल्लू बादशाह, 1989 में कानून की आवाज, 1987 में राही, 1986 में ज्वाला, 1986 में लौंग दा लश्कारा, 1984 में रावण और 1982 में सितम के गीत चले और न ही फिल्में। ये सारी फिल्में उन दिनों औसत से कम दर्जे की फिल्में मानी गई। जाहिर है कि जगजीत सिंह ने बतौर कम्पोजर बहुत पापड बेले लेकिन वे अच्छे फिल्मी गाने रचने में असफल ही रहे। इसके उलट पार्श्व गायक जगजीत जी सुनने वालों को सदा जमते रहे हैं।
उनकी सहराना आवाज दिल की गहराइयों में ऎसे उतरती रही मानो गाने और सुनने वाले दोनों के दिल एक हो गए हों। कुछ हिट फिल्मी गीत ये रहे- प्रेमगीत का होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो, खलनायक का ओ मां तुझे सलाम, दुश्मन का चिटी ना कोई संदेश, जॉगर्स पार्क का बडी नाजुक है ये मंजिल, साथ-साथ का ये तेरा घर, ये मेरा घर और प्यार मुझसे जो किया तुमने, सरफरोश का होश वालों को खबर क्या बेख़ुदी क्या चीज है, ट्रैफिक सिगनल का हाथ छुटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते (फिल्मी वर्जन) तुम बिन का कोई फरयाद तेरे दिल में दबी हो जैसे वीरजारा का तुम पास आ रहे हो (लता जी के साथ) तरकीब का मेरी आंखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर (अलका याज्ञनिक के साथ)
विवादों में रहे जगजीत
बहुत कम लोगों को पता होगा कि अपने संघर्ष के दिनों में जगजीत सिंह इस कदर टूट चुके थे कि उन्होंने स्थापित प्लेबैक सिंगरों पर तीखी टिप्पणी तक कर दी थी। हालांकि आज वे इसे अपनी भूल स्वीकारते हैं। जाहिर है जगजीत जी ने महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफी साहब पर जो कहा वो उचित नहीं होगा। ये भी देखने वाली बात है कि जगजीत जी ने अपनी पसंद के जिन फिल्मी गानों का कवर वर्सन एलबम क्लोज टू माइ हार्ट में किया था। उसमें रफी साहब का कोई गाना नहीं था।
खैर, इसके बाद उनकी दिलचस्पी राजनीति में भी बढी और भारत-पाक करगिल लडाई के दौरान उन्होंने पाकिस्तान से आ रही गायकों की भीड पर एतराज किया। तब जगजीत सिंह जी का कहना था कि उनके आने पर बैन लगा देना चाहिए। दरअसल, जगजीत जी को पाकिस्तान ने वीजा देने से इंकार कर दिया था। लेकिन जब पाकिस्तान से बुलावा आया तब जगजीत सिंह जी की नाराजगी दूर हो गई। ये इस शख्स की भलमन साहत थी कि जगजीत ने गजलों के शहंशाह मेहदी हसन के इलाज के लिए तीन लाख रूपए की मदद की। उन दिनों मेहदी हसन साहब को पाकिस्तान की सरकार तक ने नजरअंदाज कर रखा था।
घुडदौड का शौक
गजल गायकी जैसे सौम्य शिष्ट पेशे में मशहूर जगजीत जी का दूसरा शगल रेसकोर्स में घुडदौड है। कन्सर्ट के बाद कहीं सुकून मिलता है तो वो है मुंबई महालक्ष्मी इलाके का रेसकोर्स। 1965 में मुंबई में जहां डेरा डाला था उस शेर ए पंजाब होटल में कुछ ऎसे लोग थे जिन्हें घोडा दौडाने का शौक था। संगत ने असर दिखाया और इन्हें ऎसा चस्का लगा वह तभी छूटा जब वे स्वयं अस्पताल पहुंच गए थे। इसी तरह लॉस वेगास के केसिनो भी उन्हें ख़ूब भाते हैं। ज्ञातव्य है कि जगजीत सिंह इन दिनों गुलजार के साथ एक एलबम पर काम कर रहे थे। गुलजार और जगजीत सिंह इस दफा मिर्जा गालिब के खतों और गजलों पर आधारित एलबम लेकर आ रहे थे। अपने इस एलबम के बारे में बात करते हुए गुलजार ने पिछले दिनों एक कार्यक्रम में कहा, मैं इस वक्त जगजीत सिंह के साथ मिर्जा असद उल्लाह खां गालिब पर आधारित एक एलबम पर काम कर रहा हूं। इस एलबम में मैं गालिब के खत पढ़ूंगा और जगजीत सिंह इससे जुडी गजल गायेंगे। गुलजार और जगजीत सिंह ने मिर्जा गालिब टेलीविजन सीरियल के अलावा मरासिम, कोई बात चले और मिलाप (गुलाम अली के साथ) एलबम में साथ काम किया हैं। हालांकि, जगजीत सिंह के संगीत निर्देशन में पहली दफा 1983 में फिल्म सितम के लिए गुलजार ने गीत लिखे थे। दोनों का उनकी बेहतरीन जुगलबंदी के लिए एक अलग ही मकाम है। दूसरी दफा सिंह के साथ आने के बारे में गुलजार ने कहा, यदि जगजीत सिंह और नसीरूद्दीन शाह ना होते तो मैं शायद ही टेली सीरियल मिर्जा गालिब को कभी मूर्त रूप दे पाता। और मुझे उम्मीद है कि लोगों को गालिब पर आधारित यह एलबम पसंद आयेगा, जो जल्द ही लोगों के सामने होगा। गुलजार की यह अधूरी ख्वाहिश शायद श्रोताओं के सामने उसी रूप में आएगी जिस रूप में जगजीत उसे छोडकर गए हैं।
-राजेश कुमार भगताणी
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