अमिताभ बच्चन (जन्म-11 अक्टूबर)
राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनन्द, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, शत्रुƒन सिन्हा, विनोद मेहरा, मिथुन चक्रवर्ती, अनिल कपूर, सलमान, आमिर, शाहरूख, अक्षय, अजय देवगन, गोविंदा, ऋतिक, नील नितिन मुकेश और बहुत से नए कलाकार। फेहरिस्त और भी लम्बी है और बढती जायेगी पर एक नाम है जो शायद जस का तस है अमिताभ हरिवंश राय बच्चन जिसे कोई कुमार, कोई खान और कोई कपूर बॉलीवुड की बादशाहत की कुर्सी से डिगा नही पाया है। ना जाने क्यों इतने अच्छे-अच्छे कलाकार जब अमिताभ के साथ काम करते हैं या खडे होते हैं तो तुलना करना अतिशयोक्ति लगती है। कद ऊंचा होने के साथ-साथ उनका बडप्पन, उनकी सादी जीवन शैली, जमीन से जुडे रहना, उनकी नेक नियत, सादा स्वभाव और मृदुभाषी होना उन्हें और भी बडा बना देता है। ताज्जुब नहीं की अगर मीडिया उन्हें बॉलीवुड का शहंशाह या बॉलीवुड का बाप कहे।1970 के दशक के दौरान उन्होंने बडी लोकप्रियता प्राप्त की और तब से भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे प्रमुख व्यक्तित्व बन गए हैं। बच्चन ने अपने कैरियर में कई पुरस्कार जीते हैं, जिनमें तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और बारह फिल्मफेयर पुरस्कार शामिल हैं। उनके नाम सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता फिल्मफेयर अवार्ड का रिकार्ड है। अभिनय के अलावा बच्चन ने पाश्र्व गायक, फिल्म निर्माता और टीवी प्रस्तोता और भारतीय संसद के एक निर्वाचित सदस्य के रूप में 1987 से 1984 तक भूमिका की हैं। इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, में जन्मे अमिताभ बच्चन हिंदू कायस्थ परिवार से संबंध रखते हैं। उनके पिता, हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माँ तेजी बच्चन कराची के सिख परिवार से संबंध रखती थीं। बचपन में अमिताभ बच्चन का नाम इंकलाब रखा गया था, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग में किए गए प्रेरित वाक्यांश इंकलाब जिंदाबाद से लिया गया था। लेकिन बाद में इनका अमिताभ रखा गया जिसका अर्थ है, ऎसा प्रकाश जो कभी नहीं बुझेगा। यद्यपि इनका उपनाम श्रीवास्तव था, लेकिन पिता हरिवंश राय ने इस उपनाम को अपने कृतियों को प्रकाशित करने वाले बच्चन नाम से उद्धृत किया। यह उनका अंतिम नाम ही है जिसके साथ उन्होंने फिल्मों में एवं सभी सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए उपयोग किया। अब यह उनके परिवार के समस्त सदस्यों का उपनाम बन गया है। अमिताभ, हरिवंश राय बच्चन के दो बेटों में सबसे बडे हैं। उनके दूसरे बेटे का नाम अजिताभ है। इनकी माता की थिएटर में गहरी रूचि थी और उन्हें फिल्म में भी रोल की पेशकश की गई थी किंतु इन्होंने गृहणी बनना ही पसंद किया।अमिताभ के कैरियर के चुनाव में इनकी माता का भी कुछ हिस्सा था, क्योंकि वे हमेशा इस बात पर भी जोर देती थी कि उन्हें सेंटर स्टेज को अपना कैरियर बनाना चाहिए। अमिताभ बच्चन के पिता का देहांत 2003 में हो गया था, जबकि उनकी माता की मृत्यु 21 दिसम्बर 2007 को हुई थीं। बच्चन ने दो बार एम.ए. की उपाधि ग्रहण की है। मास्टर ऑफ आर्ट्स (स्नातकोत्तर) इन्होंने इलाहाबाद के ज्ञान प्रबोधिनी और बॉयज हाई स्कूल (बीएचएस) तथा उसके बाद नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में पढाई की जहाँ कला संकाय में प्रवेश दिलाया गया। अमिताभ बाद में अध्ययन करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोडीमल कॉलेज चले गए जहां इन्होंने विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की। अपनी आयु के 20 के दशक में बच्चन ने अभिनय में अपना कैरियर आजमाने के लिए कोलकाता की एक शिपिंग फर्म बर्ड एंड कंपनी में किराया ब्रोकर की नौकरी छोड दी। आरंभिक कार्य 1969 -1972 बच्चन ने फिल्मों में अपने कैरियर की शुरूआत ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी सात हिंदुस्तानी के सात कलाकारों में एक कलाकार के रूप में की, उत्पल दत्त, मधु और जलाल आगा जैसे कलाकारों के साथ अभिनय कर के। फिल्म ने वित्तीय सफलता प्राप्त नहीं की पर बच्चन ने अपनी पहली फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक का पुरस्कार जीता। इस सफल व्यावसायिक और समीक्षित फिल्म के बाद उनकी एक और आनंद (1971) नामक फिल्म आई जिसमें उन्होंने उस समय के लोकप्रिय कलाकार राजेश खन्ना के साथ काम किया।डॉ. भास्कर बनर्जी की भूमिका करने वाले बच्चन ने कैंसर के एक रोगी का उपचार किया जिसमें उनके पास जीवन के प्रति वेबकूफी और देश की वास्तविकता के प्रति उसके दृष्टिकोण के कारण उसे अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद अमिताभ ने (1971) में बनी परवाना में एक मायूस प्रेमी की भूमिका निभाई जिसमें इसके साथी कलाकारों में नवीन निश्चल, योगिता बाली और ओम प्रकाश थे और इन्हें खलनायक के रूप में फिल्माना अपने आप में बहुत कम देखने को मिलने जैसी भूमिका थी। इसके बाद उनकी कई फिल्में आई जो बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं हो पाई जिनमें रेशमा और शेरा (1971) भी शामिल थी और उन दिनों इन्होंने गुड्डी फिल्म में मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई थी। इनके साथ जया भादुडी, धर्मेन्द्र थे। 1972 में निर्देशित एस. रामनाथन द्वारा निर्देशित कामेडी फिल्म बॉम्बे टू गोवा में भूमिका निभाई। इस फिल्म में इनकी नायिका अरूणा ईरानी थी। महमूद, अनवर अली और नासिर हुसैन जैसे कलाकारों के साथ कार्य किया है। अपने संघर्ष के दिनों में वे 7 (सात) वर्ष की लंबी अवधि तक अभिनेता, निर्देशक एवं हास्य अभिनय के बादशाह महमूद साहब के घर में रूके रहे। अमिताभ बच्चन की पहली सुपर हिट फिल्म प्रदर्शित हुई जंजीर, जिसके निर्देशक प्रकाश मेहरा थे। 1973 में जब प्रकाश मेहरा ने जंजीर में इंस्पेक्टर विजय खन्ना की भूमिका के रूप में अवसर दिया और यहीं से अमिताभ के करियर में नया मोड आया। इस फिल्म ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन के रूप में स्थापित किया। बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाने वाले एक जबरदस्त अभिनेता के रूप में यह उनकी पहली फिल्म थी, जिसने उन्हें सर्वश्रेष्ठ पुरूष कलाकार के फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए मनोनीत करवाया। 1973 ही वह साल था जब इन्होंने 3 जून को जया से विवाह किया और इसी समय ये दोनों न केवल जंजीर में बल्कि एक साथ कई फिल्मों में दिखाई दिए।जया भादुडी से शादी करने के बाद सबसे पहले प्रदर्शित होने वाली उनकी फिल्म थी, अभिमान जो इनकी शादी के केवल एक मास बाद ही रिलीज हो गई थी। इस फिल्म के गीत लूटे कोई मन का सफर बनके मेरा साथी ने अपने बेहतरीन शब्दों और कर्णप्रिय धुन से श्रोताओं को पिछले 38 साल से दीवाना बना रखा है। आज भी जब कभी यह गीत रेडियो पर सुनाई देता है तो मन बाग-बाग हो जाता है। न चाहते हुए भी मन इस गीत को गुनगुनाने लगता है। बाद में ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन तथा बीरेश चटर्जी द्वारा लिखित नमक हराम फिल्म में विक्रम की भूमिका मिली, जिसमें दोस्ती के सार को प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन एक बार फिर से सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ परदे पर नजर आए। (आनन्द के बाद यह उनके साथ दूसरी और अपने अब तक के करियर की अन्तिम फिल्म रही है। इस फिल्म के बाद राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को कोई निर्देशक साथ में परदे पर नहीं ला पाया। अफसोस दो सितारों के अहम् ने दर्शकों को उनकी बेहतरीन परफार्मेस देखने से महरूम कर रखा है।) राजेश खन्ना और रेखा के विपरीत इनकी सहायक भूमिका में इन्हें बेहद सराहा गया और इन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। 1974 की सबसे बडी फिल्म “रोटी कपडा और मकान” में सहायक कलाकार की भूमिका करने के बाद बच्चन ने बहुत सी फिल्मों में कई बार मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई जैसे “कुंवारा बाप” और “दोस्त”। मनोज कुमार द्वारा निदेशित और लिखित फिल्म जिसमें दमन और वित्तीय एवं भावनात्मक संघर्षो के समक्ष भी ईमानदारी का चित्रण किया गया था, वास्तव में आलोचकों एवं व्यापार की दृष्टि से एक सफल फिल्म थी और इसमें सह कलाकार की भूमिका में अमिताभ के साथी के रूप में मनोज कुमार स्वयं और शशि कपूर एवं जीनत अमान थीं।बच्चन ने 6 दिसंबर 1974 को प्रदर्शित मजबूर फिल्म में बतौर नायक काम किया। जंजीर के बाद यह उनकी दूसरी ऎसी फिल्म थी जिसमें वे एकल नायक के रूप में नजर आए थे। रवि टण्डन के निर्देशन में बनी मजबूर हॉलीवुड फिल्म जिगजेग पर आधारित थी। कहना यह चाहिए कि आधारित तो क्या उसकी नकल थी। हॉलीवुड फिल्म में जार्ज कैनेडी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। मजबूर बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर सकी। अमिताभ की अभिनय प्रतिभा को सबसे ज्यादा ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्मों में भुनाया। 1975 में ऋषिकेश मुखर्जी ने अमिताभ को धर्मेन्द्र, शर्मिला टैगोर और जया के साथ चुपके-चुपके नामक फिल्म में पेश किया। चुपके-चुपके क्लासिकल फिल्मों में अपना एक अलग मुकाम रखती है। परिस्थितिजन्य हास्य पर इससे बेहतरीन फिल्म बॉलीवुड में अन्य कोई शायद ही आई हो। 1975 में अमिताभ ने जहां चुपके-चुपके की, वहीं उन्होंने अपराध पर बनी फिल्म फरार और रोमांस से भरपूर फिल्म मिली में अपने अभिनय के जौहर दिखाए।
1975 का वर्ष ऎसा वर्ष था जो जितना अमिताभ बच्चन के लिए महत्वपूर्ण रहा, उतना ही हिन्दी फिल्म उद्योग के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इस अमिताभ बच्चन की दो और फिल्में आई एक यश चोपडा के निर्देशन में बनी निर्माता गुलशन राय की दीवार और दूसरी निर्माता जी.पी. सिप्पी की शोले। यश चोपडा द्वारा निर्देशित फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन एंगी यंगमैन का जो चेहरा पेश किया, जो उनके बाद आने वाला हर युवा अदाकार आज तक परदे पर उतारता आ रहा है। इस फिल्म में उनके साथ थे शशि कपूर, निरूपा राय, नीतू सिंह और परवीन बॉबी।दीवार ने अमिताभ बच्चन को एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार दिलवाया। 1975 में यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रहकर चौथे स्थान पर रही और इंडिया टाइम्स की मूवियों में बॉलीवुड की हर हाल में देखने योग्य शीर्ष 25 फिल्मों में भी दीवार की गिनती होती है। 15 अगस्त, 1975 को रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी फिल्म शोले प्रदर्शित हुई। प्रदर्शन के पूर्व इस फिल्म के बारे में मीडिया ने विरोधाभासी प्रचार किया था। मीडिया का कहना था कि डकैतों पर आधारित इस फिल्म को कौन देखना पसन्द करेगा। इससे ज्यादा अच्छी फिल्मों (मुझे जीने दो) को जब दर्शकों ने नकार दिया तो शोले को देखने कौन आएगा। शोले प्रदर्शित हुई। शुरूआत में इसे वाकई में दर्शकों ने कम स्वीकारा, लेकिन जिन दर्शकों ने इसको देखा वे इसकी तारीफ करते नहीं थके। वही दर्शक अपने साथ अन्य दर्शकों को सिनेमा हॉलों में लेकर आए। और देखते ही देखते शोले सिनेमा इतिहास की सबसे बडी फिल्म और सबसे ज्यादा कमाई करने वाली साबित हुई।शोले ने अपने समय में 2,36,45,000,00 रूपये कमाए जो मुद्रास्फीति को समायोजित करने के बाद 60 मिलियन अमरीकी डॉलर के बराबर हैं। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, संजीव कुमार, जया बच्चन और अमजद खान के साथ सत्येन कप्पू और जगदीप ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1999 में बीबीसी इंडिया ने इस फिल्म को शताब्दी की फिल्म का नाम दिया और दीवार की तरह इसे इंडियाटाइम्ज मूवियों में बॉलीवुड की शीर्ष 25 फिल्मों में शामिल किया। उसी साल 50 वें वार्षिक फिल्म फेयर पुरस्कार के निर्णायकों ने एक विशेष पुरस्कार दिया जिसका नाम 50 सालों की सर्वश्रेष्ठ फिल्म फिल्मफेयर पुरस्कार था।रमेश सिप्पी की यह फिल्म जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा के निर्देशन में बनी क्लासिक फिल्म सवन समुराई से प्रेरित थी। इस फिल्म के कथानक को रमेश सिप्पी ने मूलभूत परिवर्तन करते हुए कुछ इस अंदाज में परदे पर उतारा कि यह अपने आप में विश्व का आठवां अजूबा बन गई। शोले भारतीय फिल्म इतिहास की पहली ऎसी फिल्म थी, जिसके संवादों को कैसेट के जरिए रिलीज करके म्यूजिक कम्पनी एचएमवी ने लाखों रूपये की कमाई की थी। बॉक्स ऑफिस पर शोले जैसी फिल्मों की जबरदस्त सफलता के बाद बॉलीवुड में अमिताभ बच्चन ने अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया था। इसके बाद उन्होंने 1976 से 1984 तक अनेक सर्वश्रेष्ठ कलाकार वाले फिल्मफेयर पुरस्कार और अन्य पुरस्कार प्राप्त किए। शोले ने बॉलीवुड में अमिताभ को महान एक्शन नायक के रूप में स्थापित किया था, इसके बावजूद अमिताभ ने एक्शन के इतर भी स्वयं को अन्य भूमिकाओं में ढाला। नतीजा दर्शकों के सामने अमिताभ का दूसरा रूप कभी-कभी (1976) और मनमोहन देसाई की एक्शन कॉमेडी अमर अकबर एंथनी (1977) आई।1976 में इन्हें यश चोपडा ने अपनी दूसरी फिल्म कभी कभी में साइन कर लिया यह और एक रोमांटिक फिल्म थी, जिसमें बच्चन ने अमित मल्होत्रा नाम वाले युवा कवि की भूमिका निभाई थी जिसे राखी गुलजार द्वारा निभाई गई पूजा नामक एक युवा लडकी से प्रेम हो जाता है। भावनात्मक जोश और कोमलता के विषय पर बनी कभी-कभी अमिताभ की इससे पहले की गई फिल्मों और बाद में की गई एक्शन फिल्मों की तुलना में प्रत्यक्ष कटाक्ष था। कभी-कभी ने एक बार फिर से अमिताभ बच्चन को फिल्म फेयर पुरस्कार दिलवाया। बॉक्स ऑफिस पर कभी-कभी अपने समय की सर्वाधिक सफल फिल्मों में शामिल थी। दर्शकों के सिर से अभी कभी-कभी का खुमार उतरा भी नहीं था कि वर्ष1977 में अमिताभ बच्चन की मनमोहन देसाई के निर्देशन में लास्ट एण्ड फाउण्ड फार्मूले पर आधारित संगीतमय रोमांटिक कॉमेडी “अमर अकबर एंथनी” प्रदर्शित हुई। फिर से अमिताभ ने अपने सुपर एक्टिंग के दम पर 1977 का फिल्म फेयर पुरस्कार अपनी झोली में डाला। इस फिल्म में इन्होंने विनोद खन्ना और ऋषि कपूर के साथ एनथॉनी गॉन्सॉलवेज के नाम से तीसरी अग्रणी भूमिका की थी। 1978 संभवत: इनके जीवन का सर्वाधिक प्रशंसनीय वर्ष रहा। इस वर्ष अमिताभ बच्चन की पांच फिल्में प्रदर्शित हुई जिनमें से भारत में उस समय की सबसे अधिक आय अर्जित करने वाली चार फिल्मों में अमिताभ नजर आए। इन पांच फिल्मों में से दो फिल्मों कसमे वादे और डॉन में अमिताभ ने दोहरी भूमिका निभाई। त्रिशूल और मुकद्दर का सिकंदर ऎसी फिल्में रहीं जिनके लिए अमिताभ के आलोचकों ने भी भरपूर तारीफ की। इन दोनों फिल्मों के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। लेकिन पांचवीं फिल्म ऎसी थी, जिसने बॉक्स ऑफिस पर अमिताभ बच्चन के होते हुए दम तोड दिया था। यह फिल्म थी बेशर्म, जिसे हास्य अभिनेता देवेन वर्मा ने निर्देशित किया था। हालांकि इस फिल्म में उस समय की जानी मानी स्टार कास्ट ने काम किया था।अमिताभ के अतिरिक्त इस फिल्म में शर्मिला टैगोर और अमजद खान ने काम किया था। डॉन जिन दिनों प्रदर्शित हुई थी, वह अपने प्रथम सप्ताह में मीडिया और बॉलीवुड के बॉक्स ऑफिस सरताजों द्वारा असफल करार दे दी गई थी, लेकिन तकदीर ने यहां फिर से अमिताभ का साथ दिया और माउथ पब्लिसिटी के जरिए इस फिल्म ने दूसरे सप्ताह से अपनी सफलता का जो इतिहास रचा वह अपने आप में फिल्म उद्योग का इतिहास बन गया। जिक्र करना चाहेंगे उत्तरप्रदेश के बडे शहर कानपुर का जहां डॉन एक नामी सिनेमा हॉल में सिर्फ चार सप्ताह ही चल पाई थी। असफलता की निराशा में वितरक ने डॉन को कानपुर रेलवे स्टेशन के पास स्थित मंजूश्री सिनेमा हॉल में शिफ्ट किया। तकदीर ने ऎसा पलटा खाया कि डॉन ने कानपुर में मंजूश्री सिनेमा हॉल में 50 सप्ताह का रिकॉर्ड कायम किया। इस पडाव पर अप्रत्याशित दौड और सफलता के नाते बॉलीवुड ने अमिताभ बच्चन को वन मैन इण्डस्ट्री के नाम से ऎसी उपाधि दी जिसे आज तक कोई भी अभिनेता उनसे नहीं छीन पाया है।1979 में पहली बार अमिताभ को मि0 नटवरलाल नामक फिल्म के लिए अपनी सहयोगी कलाकार रेखा के साथ काम करते हुए गीत गाने के लिए अपनी आवाज का उपयोग करना पडा। फिल्म में उनके प्रदर्शन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार, पुरूष पाश्र्व गायक का सर्वश्रेष्ठ फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। 1979 में इन्हें निर्देशक यश चोपडा की काला पत्थर के लिए एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया और इसके बाद 1980 में राजखोसला द्वारा निर्देशित फिल्म दोस्ताना में दोबारा नामित किया गया जिसमें इनके सह कलाकार शत्रुघन सिन्हा और जीनत अमान थे। दोस्ताना वर्ष 1980 की शीर्ष फिल्म साबित हुई।1981 में इन्होंने यश चोपडा की नाटकीयता फिल्म सिलसिला में काम किया, जिसमें इनकी सह कलाकार के रूप में इनकी पत्नी जया और अफवाहों में इनकी प्रेमिका रेखा थीं। इस युग की दूसरी फिल्मों में राम बलराम (1980), शान (1980), लावारिस (1981) और शक्ति (1982) जैसी फिल्में शामिल थीं। अमिताभ बच्चन के करियर में शक्ति का अपना अगल स्थान है। इस फिल्म में उन्होंने पहली बार अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के साथ काम किया था।निर्देशक रमेश सिप्पी ने दो अभिनय सम्राटों को एक साथ लाकर फिल्म उद्योग में एक नया इतिहास बनाया। दिलीप कुमार के सामने अमिताभ ने कहीं भी अपने अभिनय को उन्नीस नहीं होने दिया। 1982 में कुली फिल्म में बच्चन ने अपने सह कलाकार पुनीत इस्सर के साथ एक फाइट की शूटिंग के दौरान अपनी आंतों को लगभग घायल कर लिया था। बच्चन ने इस फिल्म में स्टंट अपनी मर्जी से करने की छूट ले ली थी जिसके एक सीन में इन्हें मेज पर गिरना था और उसके बाद जमीन पर गिरना था। हालांकि जैसे ही ये मेज की ओर कूदे तब मेज का कोना इनके पेट से टकराया जिससे इनके आंतों को चोट पहुंची और इनके शरीर से काफी खून बह निकला था। अमिताभ को फौरन जहाज से उपचार हेतु अस्पताल ले जाया गया जहां लम्बे समय तक ये भर्ती रहे और कई बार मौत के मुंह में जाते-जाते बचे। यह अफवाह भी फैल भी गई थी कि वे एक दुर्घटना में मर गए हैं और संपूर्ण देश में इनके चाहने वालों की भारी भीड इनकी रक्षा के लिए दुआएं करने में जुट गयी थी। इस दुर्घटना की खबर दूर-दूर तक फैल गई और यूके के अखबारों की सुर्खियों में छपने लगी जिसके बारे में कभी किसी ने सुना भी नहीं होगा। बहुत से भारतीयों ने मंदिरों में पूजा अर्चनाएं की और इन्हें बचाने के लिए अपने अंग अर्पण किए और बाद में जहां इनका उपचार किया जा रहा था, उस अस्पताल (लीलावती) के बाहर इनके चाहने वालों की मीलों लंबी कतारें दिखाई देती थी। अमिताभ को ठीक होने में लम्बा वक्त लगा और वर्ष के अन्त में जाकर पुन: काम पर आ पाए। कुली 1983 में रिलीज हुई और आंशिक तौर पर बच्चन की दुर्घटना के असीम प्रचार के कारण बॉक्स ऑफिस पर सफल रही।कुली भारतीय फिल्म इतिहास की शायद पहली ऎसी फिल्म थी, जिसकी कहानी में इस दुर्घटना के बाद परिवर्तन करते हुए इसके अन्त में नायक को मौत पर विजय पाते हुए दिखाया गया था। निर्देशक मनमोहन देसाई ने दुर्घटना के बाद फिल्म की कहानी का अन्त बदल दिया था। पहले फिल्म के अन्त में अमिताभ को मरना था लेकिन बाद में पटकथा में परिवर्तन करने के बाद उसे अंत में जीवित दिखाया गया। देसाई ने इस बारे में कहा था जो वास्तविक जीवन में मौत से लडकर जीता हो, उसे परदे पर मौत अपना ग्रास बना ले। कुली में पहले सीन के अंत को जटिल मोड पर रोक दिया गया था और उसके नीचे एक कैप्शन प्रकट होता है जिसमें अभिनेता के घायल होने की बात लिखी गई थी और इसमें दुर्घटना के प्रचार को सुनिश्चित किया गया था। बाद में अमिताभ मियासथीनिया ग्रेविस में उलझ गए जो या तो कुली में दुर्घटना के चलते या फिर भारी मात्रा में दवाई लेने से हुआ या जो अतिरिक्त रक्त दिया गया था इसके कारण हुआ। उनकी बीमारी ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कमजोर महसूस करने पर मजबूर कर दिया और फिल्मों में काम करने से सदा के लिए छुट्टी लेने और राजनीति में शामिल होने का निर्णय किया। यही वह समय था जब उनके मन में फिल्म करियर के संबंध में निराशावादी विचारधारा का जन्म हुआ और प्रत्येक शुक्रवार को प्रदर्शित होने वाली नई फिल्म के प्रत्युत्तर के बारे में चिंतित रहते थे। प्रत्येक प्रदर्शित फिल्म से पहले वह नकारात्मक रवैये में जवाब देते थे कि यह फिल्म तो फ्लाप होगी। 1984 में अमिताभ ने अभिनय से कुछ समय के लिए विश्राम ले लिया और अपने पुराने मित्र राजीव गांधी को सहयोग करने की दृष्टि से राजनीति में कूद पडे। उन्होंने इलाहाबाद लोकसभा सीट से उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एच.एन. बहुगुणा को आम चुनाव के इतिहास में (68.2 प्रतिशत) के मार्जिन से विजय दर्ज करते हुए चुनाव में हराया था। हालांकि इनका राजनीतिक करियर कुछ अवधि के लिए ही था, जिसके तीन साल बाद इन्होंने अपनी राजनीतिक अवधि को पूरा किए बिना त्याग दिया। इस त्यागपत्र के पीछे इनके भाई का बोफोर्स विवाद में अखबार में नाम आना था, जिसके लिए इन्हें अदालत में जाना पडा।हालांकि बाद में न्यायालय ने इन्हे इस मामले में दोष मुक्त सिद्ध कर दिया था। बहुत कम लोग ऎसे हैं जो ये जानते हैं कि स्वयंभू प्रेस ने अमिताभ बच्चन पर प्रतिबंध लगा दिया था। स्टारडस्ट और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने मिलकर एक संघ बनाया, जिसमें अमिताभ के शीर्ष पर रहते समय 15 वर्ष के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। इन्होंने अपने प्रकाशनों में अमिताभ के बारे में कुछ भी न छापने का निर्णय लिया। 1989 के अंत तक बच्चन ने उनके सैटों पर प्रेस के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन, वे किसी विशेष पत्रिका के खिलाफ नहीं थे। ऎसा कहा गया है कि बच्चन ने कुछ पत्रिकाओं को प्रतिबंधित कर रखा था, क्योंकि उनके बारे में इनमें जो कुछ प्रकाशित होता रहता था, उसे वे पसंद नहीं करते थे और इसी के चलते एक बार उन्हें इसका अनुपालन करने के लिए अपने विशेषाधिकार का भी प्रयोग करना पडा।
1988 में तीन साल की छोटी सी राजनीतिक अवधि के बाद अमिताभ बच्चन ने फिल्मों में वापसी की। उनकी वापसी की पहली फिल्म थी “शंहशाह” जिसे टीनू आनन्द ने निर्देशित किया था। अमिताभ के प्रति दर्शकों की कितनी दीवानगी थी यह “शहंशाह” के प्रदर्शन वक्त पता चला था। जयपुर जैसे शहर में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी, तब वहां एक नया रिकॉर्ड कायम हुआ था। यह पहली ऎसी फिल्म थी जिसे उस समय जयपुर के छह सिनेमा हॉलों में प्रदर्शित किया गया था और जिसका प्रथम शो प्रात: 6 बजे अम्बर सिनेमा (जो अब बन्द हो चुका है) में दिखाया गया था। इस फिल्म को देखने के लिए दर्शकों ने पूरी रात इंतजार किया था।
अमिताभ बच्चन की वापसी के चलते “शहंशाह” बॉक्स आफिस पर सफल रही। इस वापसी वाली फिल्म के बाद इनकी स्टार पावर क्षीण होती चली गई क्योंकि इनकी आने वाली सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल होती रहीं। 1991 की हिट फिल्म “हम” से ऎसा लगा कि यह वर्तमान प्रवृति को बदल देगी किंतु इनकी बॉक्स आफिस पर लगातार असफलता के चलते सफलता का यह क्रम कुछ पल का ही था। असफलता के इसी क्रम में चलते हुए भी अमिताभ बच्चन ने 1990 की फिल्म “अग्निपथ” में माफिया डॉन की यादगार भूमिका के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। 1992 में खुदागवाह के प्रदर्शित होने के बाद बच्चन ने अगले पांच वर्षो के लिए अपने आधे रिटायरमेंट की ओर चले गए। 1994 में इनकी देर से प्रदर्शित होने वाली कुछ फिल्मों में से एक “इन्सान्यित” रिलीज तो हुई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। अस्थायी सेवानिवृत्ति की अवधि के दौरान अमिताभ निर्माता बने और “अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड” की स्थापना की।
1996 में वर्ष 2000 तक 10 बिलियन रूपए (लगभग 250 मिलियन अमरीकी डॉलर) वाली मनोरंजन की एक प्रमुख कंपनी बनने का सपना देखा। एबीसीएल की रणनीति में भारत के मनोरंजन उद्योग के सभी वर्गो के लिए उत्पाद एवं सेवाएं प्रचलित करना था। इसके ऑपरेशन में मुख्य धारा की व्यावसायिक फिल्म उत्पादन और वितरण, ऑडियो और वीडियो कैसेट डिस्क, उत्पादन और विपणन के टेलीविजन सॉफ्टवेयर, हस्ती और इवेन्ट प्रबंधन शामिल था। 1996 में कंपनी के आरंभ होने के तुरंत बाद कंपनी द्वारा उत्पादित पहली फिल्म “तेरे मेरे सपने” थी जो बॉक्स ऑफिस पर विफल रही लेकिन इस फिल्म से बॉलीवुड को अरशद वारसी और दक्षिण भारतीय फिल्मों को सुपर स्टार सिमरन जैसी अभिनेत्री मिली। एबीसीएल ने कुछ फिल्में बनाई लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म कमाल नहीं दिखा सकी। 1997 में, एबीसीएल द्वारा निर्मित “मृत्युदाता” फिल्म से अमिताभ ने अपने अभिनय में वापसी का प्रयास किया। “मृत्युदाता” के द्वारा अमिताभ की पूर्व एक्शन हीरो वाली छवि को वापस लाने की कोशिश की गई लेकिन “मृत्युदाता” की विफलता ने उनकी वापसी के द्वार को बंद कर दिया।
एबीसीएल 1997 में बंगलौर में आयोजित 1996 की मिस वल्र्ड सौंदर्य प्रतियोगिता का प्रमुख प्रायोजक था और इसके खराब प्रबंधन के कारण इसे करोडों रूपए का नुकसान उठाना पडा था। इस घटनाक्रम और एबीसीएल के चारों ओर कानूनी लडाइयों और इस कार्यक्रम के विभिन्न गठबंधनों के परिणामस्वरूप यह तथ्य प्रकट हुआ कि एबीसीएल ने अपने अधिकांश उच्च स्तरीय प्रबंधकों को जरूरत से ज्यादा भुगतान किया है जिसके कारण वर्ष 1997 में वह वित्तीय और क्रियाशील दोनों तरीके से ध्वस्त हो गई। कंपनी प्रशासन के हाथों में चली गई और बाद में इसे भारतीय उद्योग मंडल द्वारा असफल करार दे दिया गया। अप्रेल 1999 में मुम्बई उच्च न्यायालय ने अमिताभ को अपने मुम्बई वाला बंगला प्रतीक्षा और दो फ्लेटों को बेचने पर तब तक रोक लगा दी जब तक कैनरा बैंक की राशि के लौटाए जाने वाले मुकदमे का फैसला न हो जाए। कोर्ट में उनके द्वारा यह दलील दी गई कि उन्होंने अपना बंगला सहारा इंडिया फाइनेंस के पास अपनी कंपनी के लिए कोष बढाने के लिए गिरवी रख दिया है। इस आरोप से उबरने में अमिताभ को लम्बा वक्त लगा, जिसने उनके फिल्मी करियर को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया।
संस्कारों में मिले अंतिम क्षण तक लडने की क्षमता की वजह से यह अदाकार बीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में नए सिरे से निर्माता-निर्देशकों के यहां स्वयं के लिए काम मांगने लगा। उन दिनों उभर चुके सितारों की वजह से अमिताभ को अनदेखा किया जाने लगा लेकिन एक शख्स ने उन्हें फिर से गले लगाया। यह वह शख्स था जिसने अमिताभ के साथ अपने समय की किवदंती बन चुकी फिल्मों- दीवार, कभी-कभी, सिलसिला, काला पत्थर इत्यादि का निर्देशन किया था- यह थे बॉलीवुड के प्रेम गुरू यश चोपडा जिन्होंने उन्हें अपने बेटे द्वारा निर्देशित होने वाली दूसरी फिल्म मोहब्बते में उस समय के सुपर सितारे शाहरूख खान के सामने एक दमदार रोल में पेश किया।
मोहब्बते के किरदार के बाद बॉलीवुड का ध्यान फिर से अमिताभ बच्चन की तरफ गया और निर्देशकों को लगा कि उन्होंने अमिताभ को ठुकरा कर अच्छा नहीं किया। कर्ज के बोझ तले दबे अमिताभ बच्चन ने घर को संभालने और कर्ज को उतारने के लिए अपने परिजनों के विरोध के बावजूद छोटे परदे पर उतरने का निर्णय किया। इस बात को लेकर उनके परिजनों में कुछ मनमुटाव भी हुआ। एक बार तो उन्होंने भी सोचा कि इससे मेरा करियर बिलकुल खत्म हो जाएगा लेकिन अपने पिता हरिवंश राय बच्चन की अगि्नपथ की कविता को याद करते हुए उन्होंने टीवी के लिए पहला कार्यक्रम पेश किया ” कौन बनेगा करोडपति “।
टीवी चैनल ने इस गेम शो को कुछ इस तरह से प्रचारित किया जिसने अमिताभ को घर-घर में वो शोहरत दिलायी जितनी उन्होंने अपने करियर में भी प्राप्त नहीं की थी। केबीसी की सफलता ने अमिताभ में आत्मविश्वास फूंका जिससे उन्होंने बडे परदे पर सफलतापूर्वक अपनी दूसरी पारी को परवान चढाया। करोडपति के बाद अमिताभ ने फिल्मों में फिर से कामयाबी पायी। उनकी इस सफलता को देखकर उन्हें सम्पूर्ण विश्व में सदी का महानायक चुना गया। इस दौरान उन्होंने एक रिश्ता-द बाण्ड ऑफ लव, आंखें, वक्त, खाकी, फैमिली, कांटे, शूट आउट एट लोखण्डवाला, वीरजारा, पहेली के साथ कई ऎसी फिल्में दी जिन्होंने उन्हें न सिर्फ आर्थिक तौर पर मजबूत किया बल्कि बॉलीवुड के कुछ पुराने सितारों को भी वापसी के लिए बाध्य किया। इनमें प्रमुख थे धर्मेन्द्र और राजेश खन्ना।
राजेश खन्ना ने ऋषि कपूर की आ अब लौट चलें से वापसी की थी लेकिन फिल्मी लेखक इस गुजरे सुपर स्टार के लिए किरदारों को लिखने में कामयाब न हो पाए। केबीसी को अमिताभ ने जिस अंदाज में पेश किया और कर रहे हैं वह अपने आप में बॉलीवुड के उन सितारों के लिए एक मिसाल है जो अन्य कार्यक्रमों के प्रस्तोता हैं। अमिताभ ने गरिमामय अंदाज में केबीसी को प्रस्तुत किया है। वे अपने प्रतिभागियों के साथ जिस आत्मीयता और बुर्जुग की तरह व्यवहार करते हैं वह प्रतिभागी को न सिर्फ प्रोत्साहित करता है वरन् उसमें एक नई ऊर्जा भर देता है। केबीसी के दूसरे संस्करण को मीडिया द्वारा अमिताभ के घोर प्रतिद्वंद्वी करार दिए गए शाहरूख ने पेश किया था लेकिन वे इसके पहले भाग का दस प्रतिशत भी दर्शकों को अपने साथ नहीं जोड पाए, इसी वजह से इस कार्यक्रम की सीमित कडियां पेश की गई।
अमिताभ ने 2000 से हुई अपनी वापसी के बाद हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। चाहे वह विज्ञापन जगत हो, टीवी हो या फिर फिल्म निर्माण हो, उन्होंने बेहतरीन काम किया है। अमिताभ के कायल निर्देशक उम्र को दरकिनार करते हुए उनके लिए विशेष किरदार लिखते हैं और बतौर नायक उन्हें अपनी फिल्म में लेकर सफलता का नया इतिहास लिखते हैं। जिक्र करना चाहेंगे निर्देशक आर.बालाकृष्णन अर्थात् आर. बाल्की का जिन्होंने उन्हें नायक लेकर तब्बू के साथ चीनी कम और विद्या बालन व अभिषेक के साथ पा जैसी उत्कृष्ट फिल्मों में पेश किया।
चीनी कम का कथानक भारतीय समाज में प्रचलित शादी ब्याह में उम्र को लेकर रचा गया करारा व्यंग्य था। यह फिल्म इस मिथक को तोडने का एक सराहनीय प्रयास था। इसके बाद आर.बाल्की ने उन्हें पा के उस किरदार में लिया जिसे करने के लिए शायद ही कोई अभिनेता तैयार होता। अमिताभ ने न सिर्फ ये किरदार निभाया बल्कि इस फिल्म का निर्माण भी उन्होंने स्वयं ही किया। इस फिल्म के लिए उन्हें पुरस्कारों से लाद दिया गया था। कभी अगि्नपथ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले इस अभिनेता ने राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करने वाली समिति की विचारधारा में बदलाव लाने का प्रयास किया। इसी का नतीजा है कि आज सलमान खान की दबंग को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जा रहा है। बुड्ढा होगा तेरा बाप को देखकर निश्चित रूप से कहना चाहेंगे कि बॉलीवुड में चल रही परिवर्तन की लहर को इस फिल्म के बाद बढावा मिलेगा। इस वक्त जो नए लेखक निर्देशक सीमित दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं उन्हें अपनी सोच को बदलते हुए आम जनता के हिसाब से फिल्मों को बनाने का निर्णय करना पडेगा। इसमें आमिर खान को शामिल होना पडेगा जो कहते हैं कि मेरी फिल्में बिलकुल अलग दर्शक वर्ग के लिए होती हैं। यह सही है कि ऎसा है लेकिन आम आदमी की जिन्दगी में बढते तनाव और आर्थिक दबाव के दौर में इस प्रकार की फिल्में वक्ती तौर पर तो सफलता प्राप्त कर सकती हैं लेकिन उस दर्शक वर्ग को अपने साथ नहीं जोड सकती है जो अपने तनाव और दबाव भरी जिन्दगी में कुछ पलों के लिए मुक्त होना चाहता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 69 वषीय इस युवा की ऊर्जा को देखकर कई शख्स स्वयं में नई स्फूर्ति को महसूस करें और खामोश पडी जिन्दगी को उत्साह के साथ जीने की शुरूआत करें। बच्चन अपनी जबरदस्त आवाज के लिए जाने जाते हैं। वे बहुत से कार्यक्रमों में एक वक्ता, पाश्र्व गायक और प्रस्तोता रह चुके हैं।
बच्चन की आवाज से प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शतरंज के खिलाडी में इनकी आवाज का उपयोग कमेंटरी के लिए करने का निर्णय ले लिया क्योंकि उन्हें इनके लिए कोई उपयुक्त भूमिका नहीं मिली थी। फिल्म उद्योग में प्रवेश करने से पहले, बच्चन ने ऑल इंडिया रेडियो में समाचार उद्घोषक, नामक पद हेतु नौकरी के लिए आवेदन किया जिसके लिए इन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था। अमिताभ ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार और बारह फिल्मफेयर पुरस्कार जीते हैं। उनके नाम सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता फिल्मफेयर अवार्ड का रिकार्ड है।
अभिनय के अलावा अमिताभ ने पाश्र्व गायक, फिल्म निर्माता, टीवी प्रस्तोता और भारतीय संसद के एक निर्वाचित सदस्य भी रहे हैं। 2005 में उन्हें आंतो की समस्या के वजह से हॉस्पिटल में भरती किया गया।
बतौर निर्माता उनकी फिल्में हैं – तेरे मेरे सपने, उलासाम, मृत्युदाता, मेजर साब, अक्स, विरूद्ध, फैमिली। बतौर पाश्र्व गायक उनकी फिल्में हैं – द ग्रेट गैम्बलर, मि0 नटवरलाल, लावारिस, नसीब, सिलसिला, महान, पुकार, शराबी, तूफान, जादूगर, खुदागवाह, मेजर साब, सूर्यवंशम, अक्स, कभी ख़ुशी कभी गम, आंखें, अरमान, बागबान, देव, एतबार, बाबुल, निशब्द, चीनी कम, भूतनाथ।
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