Monday, October 19, 2009

धन की अधिष्ठात्री देवी "लक्ष्मी"

धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी का नाम "लक्ष्मी" है। देवताओं और राक्षसों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया तो चौदह रत्नों में एक लक्ष्मी भी प्राप्त हुई। इसके अनुपम गुणों, अनिंद्य सौन्दर्य और अजस्त्र प्रभावान कान्ति के कारण सुरासुर सभी लक्ष्मी पर मोहित हो गए। इन्होंने लक्ष्मी को विविध प्रकार की भेंट दी। अप्सराओं, गन्धर्वो और नटों ने संगीत-आलाप किया। मेघ ने मृदंग आदि वाद्य बजाये। नाग और सागर ने आभूषण भेंट किये।
लक्ष्मी ने सर्वगुण सम्पन्न भगवान् विष्णु का वरण किया। अत: यह हरिप्रिया, विष्णुप्रिया, श्री, इन्दिरा आदि नामों से प्रसिद्ध हुई। भगवान् विष्णु के अन्य नाम भी लक्ष्मीपति तथा लक्ष्मीकान्त विख्यात हुए। उमा, राधा और तुलसी के रूप में भी लक्ष्मी के अवतार क्रमश: शिव, कृष्ण और शलिग्राम की अर्धागिनी के रूप में हुए। लक्ष्मी परमतत्व परमात्मा की एक शक्ति है। परमात्मा की सत्, रज और तम रूपा तीन शक्तियां क्रमश: सरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूपों में हैं। महालक्ष्मी प्रवर्तक शक्ति हैं अत: प्राणियों में आकर्षण, लोभ और आसक्ति उत्पन्न करती हैं। विष्णु परम चैतन्य पालक तत्व प्रधान रजोगुण युक्त हैं और इस हेतु योग सामग्री अर्थात् धन, सम्पत्ति आवश्यक होती है। सम्पत्ति लक्ष्मी का आधिभौतिक रूप होता है।
लक्ष्मी भौतिक सम्पत्ति के साथ ही आन्तरिक सम्पत्ति जैसे सौहाद्रü, उत्साह, प्रेम, करूणा, रसिकता और सौन्दर्य की भी अधिष्ठात्री देवी हैं।
महालक्ष्मी कंचनवर्ण, अतिसुन्दरी और अक्षतभग (चिरयौवना) रहने वाली हैं। लक्ष्मीजी की प्रतिमाएं द्विभुजा और चतुर्भुजा होती हैं। द्विभुजा वाली प्रतिमाओं के हाथों में शंख, पद्म तथा चतुर्भुजा प्रतिमाओं के हाथों में क्रमश: शंख, पद्म, अमृतघट और बिल्वफल रहते हैं। शंख अहंकार और जयकोष का, पद्म सौन्दर्य, अनासक्ति और मार्दव का, अमृतघट आनन्द का तथा बिल्वफल भोग का प्रतीक माना गया है।
महालक्ष्मी की मूर्तियां अनेक रूपों में उपलब्ध हैं। जैसे गजलक्ष्मी, दीपलक्ष्मी, गजारूढ़ा, शेषशैया पर श्री विष्णु की चरण सेवा करती हुई, उलूक वाहिनी लक्ष्मी, लक्ष्मीनारायण और गरू़ड वाहनी आदि। उलूक पक्षी महालक्ष्मी का वाहन माना गया है।
लक्ष्मी-पूजन दीपावली त्यौहार के अवसर पर होता है। दीपावली को लक्ष्मी-पूजन का त्यौहार भी कहते हैं। वर्षा में फसल पक कर घर धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है। लक्ष्मी पर्व अर्थात् दीपावली भारतवर्ष का प्रमुख त्यौहार माना जाता है।
इसी संदर्भ में दीपावली को धनाध्यक्ष कुबेर की आराधना और पूजन करने की परंपराएं भी रही हैं। कुबेर संसार की समस्त निधियों के राजा माने जाते हैं। इन नौ निधियों को पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और वर्चस के नाम से जाना जाता है। इन नौ निधियों की सिद्धि पदि्मनी विद्या के द्वारा होती है क्योंकि पदि्मनी विद्या के अधिष्ठाता स्वयं कुबेर ही हैं। महाभारत में एक स्थान पर उल्लेख है कि - महाराज कुबेर के साथ भार्गव शुक्र तथा धनिष्ठा नक्षत्र भी दिखाई प़डते हैं। इन तीनों की पूर्ण कृपा हुए बिना अनंत वैभव या गुप्त निधि की प्राप्ति नहीं होती इसलिए वैभव और ऎश्वर्य की प्राप्ति के लिए इन तीनों की संयुक्त उपासना का विधान है। महालक्ष्मी भार्गवसुता या भार्गवा भी कहलाती हैं।
कुबेर पूर्वजन्म मे एक वेदज्ञ ब्राम्हण थे और पुनर्जन्म में वे रावण की सौतेली माँ इडविडा के गर्भ से उत्पन्न हुए और इन्होंने ब्रम्हा जी की आराधना की। इनकी आराधना से प्रसन्न होकर ब्रम्हाजी ने इन्हें उत्तर दिशा का दिक्पाल घोषित किया और पुष्पक विमान प्रदान करते हुए धनाध्यक्ष का पद प्रदान किया। घर की मुख्य तिजोरी में कुबेर देवता का पूजन किया जाता है।
कुबेर देव की आराधना निम्न मंत्रों से की जा सकती है-
ऊँ वैश्रवणाय स्वाहा।
ऊँ श्रीं ऊँ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नम:।
ऊँ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन धान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।

इन मंत्रों का जाप धन त्रयोदशी को और दीपावली को करने से कुबेर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और खजाना भरा रखते हैं।
व्रत कल्पद्रुम आदि ग्रंथों में कुबेर साधना के लिए फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी से वर्ष भर प्रतिमास शुक्ल त्रयोदशी को कुबेर व्रत किया जाता है। इस व्रत में कुबेर देव की पूजा उपरोक्त मंत्रों से की जाती है और इन्हीं मंत्रों का जाप किया जाता है। इस व्रत को कर लेने से तिजोरी भरी रहती है और लक्ष्मी स्थिर रूप से निवास करती है।

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